इच्छा मृत्यु अर्थात Euthanasia (यूथनेशिया) मूल रूप से एक यूनानी (ग्रीक) भाषा से लिया गया है । जिसका अर्थ Eu=अच्छी + Thanatos= मृत्यु होता है । यूथेनेसिया, इच्छामृत्यु, मर्सी किलिंग या दया मृत्यु पर दुनिया भर में अलग अलग तरह से बहस जारी है। इच्छा मृत्यु के मुद्दे से क़ानूनी पहलू के अलावा मेडिकल और सामाजिक पहलू भी जुड़े हुए हैं। दुनिया भर में यह मुद्दा पेचीदा और संवेदन शील मुद्दा माना जाता रहा है। दुनियाभर में इच्छा मृत्यु की इजाज़त देने की मांग बढ़ती जा रही है। मेडिकल साइंस के अनुसार इच्छा मृत्यु “किसी अन्य व्यक्ति की मदद से आत्महत्या और सहज मृत्यु या बिना कष्ट के मरने को कहते हैं, जिसके व्यापक रूप से अर्थ निकाले जा सकते हैं । आज हम इच्छा मृत्यु और भारतीय कानून – Euthanasia in Hindi पर बात करते हैं ।
इच्छा मृत्यु (Euthanasia)
एक व्यक्ति ऐसी बीमारी से लड़ रहा है, जिसका कोई इलाज नहीं है । वह दर्द से मुक्ति पाने के लिए अपना जीवन समाप्त करने की इच्छा जाहिर करता है। ऐसी सिथिति में क्या उसे एक इंजेक्शन देकर दर्द रहित मृत्यु देना सही है या गलत ? नीदरलैंड में 1983 से इच्छा मृत्यु कानूनन स्वीकार्य किया गया है जिसके अंतर्गत नीदरलैंड में लगभग तीन हजार लोग प्रतिवर्ष इच्छा मृत्यु के लिए आवेदन करते हैं। ऑस्ट्रेलिया ने भी इसे कानूनी स्वीकृति दी थी हालांकि इससे पहले कि कोई इस नए कानून का इस्तेमाल कर पाता आस्ट्रेलीया की फेडरल सिनेट ने इसे खारिज कर दिया।असिस्टेड सुसाइड, वॉल्युटरी यूथनेसिया या इच्छामृत्यु पर इन दिनों बहुत से देशों में विवाद चल रहा है।
इच्छा मृत्यु और नैतिकता
अपने जीवन को समाप्त कर देने की इस सहमति में परिवार और डाक्टर के सहयोग को लेकर कुछ नैतिक सवाल उठते हैं। कौन से नियम और मापदंड यह तय करेंगे कि मृत्यु के लिए सहमति प्रदान कर रहे व्यक्ति का निर्णय विशुद्ध रूप से उसका है, उसपर कोई पारिवारिक दबाव नहीं है। यह कैसे सुनिश्चित हो कि इसमें परिवार द्वारा बीमार की देख भाल की जिम्मेदारी से मुक्त होने की मंशा का खतरा नहीं। इसके अलावा एक डाक्टर की भूमिका पर आएं तो हिप्पोक्रेट की वह शपथ याद कीजिए जिसके अंतर्गत वह बीमारी को ठीक करके रोगी को जीवन देने का वचन लेता है, न कि मृत्यु प्रदान करने का। इसलिए इच्छा मृत्यु पर विद्वानों कि राय हमेशा से ही अलग अलग रही है।
इच्छा मृत्यु की असल वजह बिमारी या अवसाद
अधिकतर लाइलाज रोगी आत्महत्या को अपनी बीमारी के कारण नहीं बल्कि अवसाद की वजह से ही चुनते हैं। ऐसे मरीजों के भीतर उनका अवसाद ही इच्छा मृत्यु या आत्महत्या का विचार उत्पन्न करता है, न कि शारीरिक कष्ट या गंभीर बीमारी । अवसाद का इलाज संभव है। आंकड़े दर्शाते हैं कि लाइ इलाज रोग के शिकार व्यक्तियों में आत्महत्या का दर 2 से 5 प्रतिशत के बीच ही रहती है।
इच्छा मृत्यु मांगने का कारण
बीमार व्यक्ति को मृत्यु का प्रस्ताव निराशा को दर्शाता है न कि संवेदन शीलता को । इससे यह संदेश जाता है कि बीमार, रोगी और निर्भर व्यक्ति को जीने का हक नहीं है । सेठ जी एस मेडिकल कॉलेज मुंबई में वैज्ञानिक मनु कोठारी ने भारत और दूसरी जगहों पर इच्छा मृत्यु पर अध्ययन किया है। भारत में इच्छा मृत्यु के मामले पर वे उत्साह पूर्ण हैं और कहते हैं कि ”मैं पिछले चालीस वर्षों से डाक्टर हूं। भारत में बुजुर्गों की देखभाल देखकर मैं विस्मित हूं। यह देश अपने बुजुर्गों को नजरअंदाज नहीं करता। मुझे हमेशा लगता है कि अमेरिका में बुजर्ग भावनाओं के अभाव के कारण पीड़ित होते हैं क्योंकि वहां उनकी देखभाल नहीं होती। वे बीमारी की वजह मानवता की अनुपस्थिति के कारण आत्महत्या के बारे में सोचते हैं ।” कोठारी आगे कहते हैं कि “वे इच्छा मृत्यु को कानूनी सहमति देने के खिलाफ हैं, इच्छा मृत्यु वो हथियार है जो मनुष्य को देने लायक नहीं है ।”
इच्छा मृत्यु की भारत में स्थिति
इच्छा मृत्यु और भारतीय कानून स्पस्ट है। अपने एक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन के अंत ( इच्छा मृत्यु ) को मूल भूत अधिकार मानने से इनकार कर दिया और यह समीक्षा की कि जीवन का अधिकार प्राकृतिक अधिकार है, किंतु आत्महत्या अप्राकृतिक तरीका है, इसलिए जीवन के अधिकार के साथ मृत्यु के अधिकार को नहीं माना जा सकता। इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को भी स्वीकार किया कि मृत्यु के सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार की बात वहां पर लागू की जा सकती है जहां प्राकृतिक रूप से मृत्यु का प्रोसेज प्रारंभ हो चुका हो। जहां पर मृत्यु होना निश्चयात्मक रूप से संभव हो । यदि कोई व्यक्ति टर्मिनली इल है अर्थात उसके जीवन का अंत अवश्यंभावी है यदि ऐसे व्यक्ति की ब्रेनडेथ हो चुकी हो तो उसके लाइफ सपोर्ट को हटाया जा सकता है। कुछ देशों में इच्छामृत्यु का अधिकार कानूनी अधिकार मान लिया गया है लेकिन अपने देश में नहीं।
इच्छा मृत्यु पर भारतीय क़ानून
भारत में इच्छा मृत्यु को और दया मृत्यु दोनों को ही असवैंधानिक माना गया है क्योंकि मृत्यु का प्रयास, जो मृत्यु की इच्छा के पूरा होने के बाद ही शुरू हो पता है, वह भारतीय दंड सहिंता (IPC) की धारा 309 के अंतर्गत आत्महत्या (Suicide) का अपराध माना गया है । इसी प्रकार से इच्छा मृत्यु या दया मृत्यु, जो भले ही इन्सान्यित की भावना से प्रेरित होती हो या गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति की असहनीय दर्द को कम करने के लिए ही हो, वह भी भारतीय दंड सहिंता (IPC) की धारा 304 के अंतर्गत सदोष हत्या (Culpable homicide) का अपराध बनता है।
पी. रथीनम् बनाम भारत संघ 1984, के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 309 की संवै धानिकता पर इस आधार पर सवाल उठया था कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 21 का अतिक्रमण करती है। यानी कि अगर जीने का अधिकार है तो मरने का अधिकार भी होना चाहिए। लेकिन 1996 में उच्चतम न्यायालय ने ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य के मामले में अपने ही उपरोक्त निर्णय को उलट दिया और साफ़ किया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘जीवन के अधिकार’ में मृत्यु / इच्छा मृत्यु का अधिकार शामिल नहीं है। अतः धारा भारतीय दंड सहिंता कि धारा 306 और 309 संवैधानिक और मान्य हैं ।
यहां यह भी लिखना उचित होगा कि सन 1972 में लॉ कमीशन ने इस बात को माना था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 309 में आत्महत्या पर सजा का प्रावधान है वह समाप्त कर दिया जाए। इस संबंध में एक बिल भी लाया गया था पर वह कानून का भाग नहीं बन पाया। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 स्पष्ट करता है कि लोक व्यवस्था, सदाचार के अधीन रहते हुए देश के प्रत्येक नागरिक को अंत:करण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रसार करने का समान अधिकार होगा।
इच्छा मृत्यु और प्राचीन भारतीय परंपरा
अनन्त काल से जैन मुनि संथारा कर अपने प्राणों का विसर्जन करते आ रहे हैं जो जैन धर्म की एक निरंतर व अबाध रूप से चली रही परंपरा है। देह को अनन्त में विलीन करने की यह अध्यात्मिक प्रक्रिया विशेष परिस्थितियों के साथ जुड़ी है। आत्महत्या की तरह यह इम्पल्सिव नहीं है। अत: यह किसी भी प्रकार लोक व्यवस्था के विरुद्ध नहीं है। संथारा जैन मुनि, साधु-साध्वी तथा साधु प्रवृत्ति के व्यक्तियों के लिए जीवन समाप्त करने की अर्थात मोक्षगामी बनाने की, महाप्रस्थान के पथ पर जाने की एक प्रक्रिया के रूप में मान्य रही है। इस प्रकार संथारा आत्महत्या नहीं है।
उपरोक्त विवेचना के माध्यम से हम कह सकते हैं कि इच्छा मृत्यु को किसी तरह से उचित या जायज नहीं ठहराया जा सकता है और इसे कानूनी रंग देना भी जायज नहीं है । आपको ये मेरा लेख कैसा लगा आप इसे पढ़कर शेयर करें और कमेंट करें जिससे मैं अपनी लेखनी में सुधार कर सकूं।
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