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सिमटते गाँव: शहरीकरण की आंधी में विलुप्त होती ग्रामीण जड़ें 

सिमटते गाँव: शहरीकरण की आंधी में विलुप्त होती ग्रामीण जड़ें

     विश्व में सबसे बड़े बदलावों में गांवों की सख्या का तेजी से गिरना है। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार, १९६५ में दुनिया में गांवों की आबादी तीन अरब से ऊपर थी और शहरों की आबादी लगभग दो अरब थी। लेकिन 2025 आते-आते इसमें अप्रत्याशित बदलाव आया और शहरों की आबादी बढ़कर चार अरब के पार पहुंच गई, जबकि गांवों की संख्या तीन अरब के आसपास से काम  रह गयी है । ये आंकडे निश्चित रूप से विचलित करने वाले हैं, क्योंकि इससे साफ पता चलता है कि आने वाले समय में गांव खाली होते चले जाएंगे और शहरों में दमघोंटू स्थिति पैदा हो जाएगी। आज हम इस लेख  सिमटते गाँव: शहरीकरण की आंधी में विलुप्त होती ग्रामीण जड़ें  के माध्यम से हम आगे विस्तार से जानते हैं :-

गांवों का सिमटना: आधुनिकता की दौड़ में विलुप्त होती जड़ें

               कभी गाँवों की मिट्टी की सौंधी खुशबू हमारे अस्तित्व का आधार मानी जाती थी। बैलगाड़ियों की चरमराहट, खेतों में मेहनतकश किसानों की संगीतमय गूँज और चौपालों पर ठहाकों की गूंज एक समृद्ध ग्रामीण जीवन का प्रतीक थी। परंतु 21वीं सदी की प्रगति की आंधी में, गाँवों की संख्या तेजी से घट रही है। यह बदलाव न केवल भौगोलिक संरचना को प्रभावित कर रहा है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत और सामुदायिक जीवनशैली को भी गहरे स्तर पर बदल रहा है। सिमटते गाँव: शहरीकरण की आंधी में विलुप्त होती ग्रामीण जड़ें 

गांवों का गायब होना: सिर्फ ज़मीन का नहीं, पहचान का नुकसान

               गांवों का लुप्त होना केवल भूगोल का बदलाव नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं का भी क्षरण है। लोकगीत, पारंपरिक कारीगरी, जैविक खेती, मेलों और उत्सवों का स्वरूप धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। संयुक्त परिवार की अवधारणा सिमट रही है और पर खतरा मंडरा रहा है। बात मात्र आबादी में परिवर्तन की नहीं है, बल्कि ये कई बदलते हालात की तरफ भी इशारा करते हैं।

सिमटते गाँव: शहरीकरण की आंधी में विलुप्त होती ग्रामीण जड़ें 

गांवों का लुप्त होना: संख्याओं से परे एक त्रासदी

                संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, दुनिया भर में शहरीकरण की रफ्तार इतनी तेज है कि हर साल हजारों गाँव खत्म हो रहे हैं या शहरों में विलीन हो रहे हैं। चीन, भारत, अमेरिका, जापान और यूरोप के कई देशों में हजारों छोटे-छोटे गाँव या तो पूरी तरह खाली हो चुके हैं या फिर नगरों और महानगरों का हिस्सा बन गए हैं। भारत में, 1951 में जहाँ लगभग 70% आबादी गाँवों में रहती थी, वहीं अब यह घटकर 60% के आसपास आ गई है। जापान में, ‘घोस्ट विलेज’ (भूतिया गाँव) का चलन बढ़ रहा है, जहाँ आबादी घटने के कारण गाँव निर्जन हो गए हैं। यूरोप के कई ग्रामीण इलाकों में लोग गाँव छोड़कर शहरों में बस चुके हैं, जिससे पुराने कस्बे और गाँव इतिहास का हिस्सा बनते जा रहे हैं। गाँवों में आबादी में कमी आने के कुछ कारण हैं :-

1- खेती पर निर्भरता में कमी

                  मसलन, सबसे पहले खेती को ही ले लीजिए। दुनिया भर में 2 006 में 38 प्रतिशत भूमि पर खेती होती थी, जिसमें 2025आते-आते लगभग दो फीसदी की गिरावट आई । आयरलैंड में 66 प्रतिशत भूमि पर खेती होती थी, जो गिरकर 64 प्रतिशत रह गई । डेनमार्क में ६३ प्रतिशत भूमि पर खेती होती थी, जहां अब ६१ फीसदी पर ही खेती होती है। सूडान में कृषि भूमि का रकबा 48  प्रतिशत से घटकर 46 प्रतिशत रह गया। मतलब एकाध को छोड़कर कोई भी देश ऐसा नहीं, जहां खेती में गिरावट न आई हो। अपने ही देश में देख लीजिए. 1962 में ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति औसतन 102 हेक्टेयर भूमि थी, जो 2013 में घटकर 0.562 हेक्टेयर रह गई। इतनी बड़ी घटत अच्छे संकेत नहीं देती, क्योंकि इसका इशारा साफ है कि खेती की तरफ से किसानों का रुझान घटा है। इसके बावजूद अगर कोई देश खाद्य सुरक्षा के दृष्टिकोण से असुरक्षित नहीं है, तो इसका मतलब है कि हमने व्यापारिक खेती को बढ़ावा दिया है और गरीब और सीमांत किसान खेती से दूर चले गए हैं। आधुनिक खेती ने पर्याप्त भोजन तो दिया है, पर इसकी गुणवत्ता व विभिन्नता पर प्रतिकूल असर पड़ा है। मतलब आज रसायनयुक्त भोजन ही हमारी थाली का हिस्सा है और हमने फसलों में स्थानीय विभिन्नताओं को खो दिया है। सिमटते गाँव: शहरीकरण की आंधी में विलुप्त होती ग्रामीण जड़ें 

2- शहरीकरण: कारण और प्रभाव

  1. रोजगार और आर्थिक अवसर – शहरों में बेहतर नौकरियों और शिक्षा की उपलब्धता ने गाँवों से पलायन को बढ़ावा दिया है।
  2. कृषि का संकट – छोटे किसानों के लिए खेती अब पहले जैसी लाभदायक नहीं रही, जिससे वे अन्य व्यवसायों की ओर रुख कर रहे हैं।
  3. इंफ्रास्ट्रक्चर का असंतुलन – गाँवों में चिकित्सा, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण युवा वर्ग शहरों की ओर पलायन कर रहा है।
  4. पर्यावरणीय बदलाव – जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाएँ गाँवों को रहने योग्य बनाए रखने में बाधा बन रही हैं।
  5. सांस्कृतिक असंतुलन – आधुनिक जीवनशैली, सोशल मीडिया और डिजिटल सुविधाओं ने ग्रामीण जीवन को कम आकर्षक बना दिया है।

सिमटते गाँव: शहरीकरण की आंधी में विलुप्त होती ग्रामीण जड़ें 

गांवों के लुप्त होने से प्राकृतिक वनों, नदियों  व ग्लेशियर में कमी होना

                  बदलती दुनिया ने अगर कुछ खोया है, तो वे प्राकृतिक वन, नदियां व ग्लेशियर हैं। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर में प्राकृतिक वनों का विनाश हुआ है। उदाहरण के लिए, अपने देश में प्राकृतिक वन मात्र 23 प्रतिशत ही बचे हैं, बाकी नए विकास की भेंट चढ़ गए हैं। दूसरे देशों में भी वनों में गिरावट आई है। जैसे जिम्बाब्वे में 2011 में लगभग 40 प्रतिशत भूमि पर वन थे, जो २०25 में घटकर ३5 प्रतिशत रह गए। ये वन ही हैं, जो पानी, मिट्टी व प्राणवायु के उत्पादक हैं। पृथ्वी के बदलते मौसम व तापक्रम पर अगर कोई नियंत्रण रख सकता है, तो वन ही, जिन्हें हम दुनिया भर में खो रहे हैं। इसका बड़ा कारण है कि प्रकृति के रक्षक ग्रामीण तेजी से शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं।

दुनिया भर में मरती नदियों के पीछे का कारण बढ़ता शहरीकरण और घटते गांव ही हैं। चाहे विकसित देश अमेरिका की कहानी हो या फिर चीन या जापान की, सबने अपनी नदियों को पिछले 20 वर्षों में खोया ही खोया है । पानी की मात्रा व गुणवत्ता का बड़ा नुकसान आज पूरी दुनिया में दिखाई दे रहा है । शहरों की कचरा ढोती नदियां व गांवों में इनके जलागमों के बिगड़ते हालात आज नदियों को मारने पर उतारू हैं। ग्लेशियरों के भी ऐसे ही हालात हैं। दुनिया में सबसे बड़े अंटार्कटिका के ग्लेशियर अपना आकार खो रहे हैं। हिमालय हो या एल्पाइन, सब जगह पृथ्वी का बढ़ता ताप क्रम सबसे पहले ग्लेशियर पर ही हमला कर रहा है।

क्या गांवों को बचाया जा सकता है?

इन सब बदलावों के पीछे बढ़ता शहरीकरण व इसकी बढ़ी आवश्यकताएं ही हैं। हमें दुनिया भर में ग्रामीण क्षेत्रों को तवज्जो न देने का नुकसान भुगतना ही पड़ेगा। यह भी विडंबना है कि आज किसी भी तरह के विकास में प्राकृतिक संसाधनों की ही बलि चढ़ती है, जो मोटे तौर पर ग्रामीण परिवेश के उत्पाद हैं। जैसे बिजली के तीन-चार ही बड़े स्रोत हैं, जो जल, कोयला, सौर या फिर पेट्रोल उत्पादों के रूप में हैं। इन संसाधनों से शहर रोशन भी होते हैं और उद्योग भी उन्हीं की कृपा से चलते हैं। लेकिन दूसरी तरफ आज भी दुनिया के दो अरब गांव बिजली से वंचित हैं। ऐसे में शहरों की चमक अंधेरों से विचलित गांवों में पलायन को ही जन्म देगी । सच तो यह है कि शहरों में पानी, बिजली की बढ़ती जरूरतें गांवों के हिस्से को लील चुकी हैं। शहरों के ठाठ-बाट के पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गांवों के ही उत्पाद जुड़े हैं। अपने प्रबंधन व अन्य कौशलों के प्रताप से शहर बहुत आगे बढ़ गए, लेकिन विकास का लाभ गांवों को नहीं मिल पाया। पिछले कुछ दशकों में शहरों में जहां एक तरफ जीडीपी में बढ़ोत्तरी हुई, वहीं गांवों की जीडीपी या तो घटी या फिर स्थिर रही। इसके चलते न सिर्फ ग्रामीण व शहरी लोगों में, बल्कि विकसित एवं विकासशील देशों में भी आर्थिक असमानता बढ़ी है। गावों को बचने के लिए निम्न उपाय करने होंगे :-

  1. स्मार्ट विलेज मॉडल – डिजिटल सुविधाओं, स्टार्टअप्स और ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देकर गाँवों को आर्थिक रूप से समृद्ध बनाया जा सकता है।
  2. रिवर्स माइग्रेशन – शहरों से लोगों को वापस गाँवों की ओर आकर्षित करने के लिए बेहतर रोजगार और सुविधाएँ दी जानी चाहिए।
  3. स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा – ग्रामीण कारीगरी, जैविक खेती और स्थानीय उद्यमिता को बढ़ावा देकर गाँवों की अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाया जा सकता है।
  4. संस्कृति और परंपरा का संरक्षण – लोककलाओं, पर्व-त्योहारों और ग्रामीण जीवनशैली को आधुनिकता के साथ संतुलित करना आवश्यक है।
  5. पर्यावरण अनुकूल नीतियाँ – जल प्रबंधन, हरित ऊर्जा और टिकाऊ खेती को बढ़ावा देना गाँवों की पुनरुत्थान में सहायक हो सकता है।

सिमटते गाँव: शहरीकरण की आंधी में विलुप्त होती ग्रामीण जड़ें 

गांवों का भविष्य – अगर गाँव सहेजें नहीं तो खो देंगे

                 ऐसी बदलती परिस्थितियां कई बड़े प्रश्न भी खड़े करती हैं कि आने वाले समय में दुनिया का भविष्य क्या होगा। सिमटते गाँव: शहरीकरण की आंधी में विलुप्त होती ग्रामीण जड़ें  अगर इसी रफ्तार से गांव खाली होते चले गए और शहरी आबादी बढ़ती गई, तो २०५० तक हालात विस्फोटक हो जाएंगे । सबसे बड़ी मार प्राकृतिक उत्पादों – भोजन, पानी, हवा, मिट्टी पर पड़ेगी, जो सीधे-सीधे गांव से जुड़े उत्पाद हैं। वेनेजुएला के बिगड़ते हालात से इसका कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है । तेल के मामले में अमीर इस देश में खाद्य युद्ध की स्थिति पैदा हो गई। वहां सब कुछ था, पर भोजन के लाले पड़ गए। इसलिए समय आ चुका है कि इस भ्रमित आर्थिकी के फेर में ज्यादा न पड़ें और जीवन से जुड़े उत्पादों के संरक्षण के प्रति गंभीर हो जाएं। चूंकि ये संसाधन गांवों से जुड़े हैं, इसलिए पूरे विश्व को अब ग्राम केंद्रित होना होगा । वरना सारी सुविधाओं के ढेर पर बैठकर हमें रोटी के लिए रोना पड़ेगा। इन्हीं मुद्दों पर पहली बार अमेरिका में गांवों से संदर्भित सम्मेलन हुआ, जिसमें यह बात उभरकर सामने आई कि अगर नए सिरे से गांवों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो गांवों का तो पता नहीं ही रहेगा, शहरों की पताका भी नहीं लहराएगी ।

यदि गाँवों का यह क्षरण जारी रहा, तो हम न केवल अपनी सांस्कृतिक विरासत बल्कि अपनी जड़ों से भी कट जाएंगे। शहरों की बढ़ती आबादी और तनावग्रस्त जीवनशैली यह दर्शाती है कि गाँवों का संतुलित और प्राकृतिक जीवन फिर से महत्वपूर्ण हो सकता है। अब समय आ गया है कि हम सिर्फ गाँवों के अतीत को याद करने के बजाय, उनके भविष्य के लिए ठोस कदम उठाएँ। क्योंकि किसी ने ठीक ही खा है कि ”गाँव सिर्फ ज़मीन का टुकड़ा नहीं होते, वे सभ्यता की आत्मा होते हैं।”

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