Secularism in India in Hindi – पंथ निरपेक्षता और धर्म निरपेक्षता में अंतर –
भारतीय संविधान द्वारा भारत को धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble) में ‘सेक्युलर’ शब्द को ४२ वें संविधान संसोधन द्वारा सन १९७६ में जोड़ा गया था । किन्तु ऐतिहासिक रूप से भारत में ‘सर्वधर्म समन्वय’ और वैचारिक एवं दार्शनिक स्वतन्त्रता पूर्व काल से ही चली आ रही है। आज Secularism in India in Hindi – पंथ निरपेक्षता और धर्म निरपेक्षता में अंतर, के पर विस्तार पूर्वक चर्चा जरते हैं ।
भारतीय सविंधान और सेक्लुरिजम –
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार भारतीय राज्य क्षेत्र में सभी व्यक्ति कानून की दृष्टि से समान होगें और उनके साथ धर्म, जाति अथवा लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा।, अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव पर पाबंदी लगाई गयी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक रोजगार के क्षेत्र में सबको एक समान अवसर प्रदान करने की बात की गई है। (कुछ अपवादों को छोड़कर ) इसके साथ ही साथ भारतीय संविधान द्वारा प्रत्येक भारतीय नागरिक को अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतन्त्रता का मूल अधिकार भी प्रदान किया गया है।
इसी प्रकार संविधान का अनुच्छेद 25 प्रत्येक व्यक्ति को अपने धार्मिक विश्वास और सिद्धांतों का प्रसार या प्रचार करने का अधिकार देता है। वहीं संविधान का अनुच्छेद 26 धार्मिक संस्थाओं की स्थापना का अधिकार नागरिकों को देता है। सविंधान का अनुच्छेद 27 कहता है कि नागरिकों को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था की स्थापना या उसके पोषण के एवज में सरकार को टैक्स देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। सविंधान का अनुच्छेद 28, सरकारी शिक्षण संस्थाओं में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दिए जाने का प्रावधान करता है। संविधान के अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक समुदायों को स्वयं के शैक्षणिक संस्थान खोलने एवं उन पर प्रशासन करने का अधिकार दिया गया है।
जैसा की हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं कि, धर्मनिरपेक्ष शब्द भारतीय सविंधान की प्रस्तावना में बयालीसवाँ संशोधन (1976) द्वारा जोड़ा गया था यह सभी धर्मों और धार्मिक सहिष्णुता और सम्मान कि भावना व समानता का अवसर देता है । इसलिए भारत का कोई आधिकारिक राज्य धर्म नहीं है। सविंधान में हर व्यक्ति को उपदेश, अभ्यास और किसी भी धर्म के प्रचार – प्रसार करने का अधिकार दिया गया है। सरकार को किसी भी धर्म के खिलाफ या पक्ष में किसी तरह का भेदभाव नहीं करना चाहिए। सरकारों को सभी धर्मों के साथ बराबर का व्यवहार करना होगा । Secularism in India in Hindi
प्राचीन भारत में धर्म की परिभाषा –
‘मनु’ ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं-घृति, क्षमा, मनोनिग्रह, पवित्रता, इंद्रिय संयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध। और कहा है कि धर्म के ये लक्षण अनादि काल से समाज में व्याप्त हैं। महाभारत शान्ति पर्व में वेद व्यास अपने पुत्र शुक्रदेव को धर्म संचय का उपदेश देते हुए धर्म का आशय-बिना फल की आशा किए परोपकार, अतिथि सेवा, माता-पिता गुरुजन की सेवा, आत्म ज्ञानियों के कल्याणप्रद मार्ग का अनुसरण, अहिंसा का व्यवहार पर निंदा रहित जीवन, शुभ कार्य में दान बिना मोह जनित हुए, शुभ कर्मों में लगे रहना तथा धर्म तत्वों के प्रति सजग रहने को धर्म संचय बताते हैं। इसी संदर्भ में विदुर, युधिष्ठिर से उपरोक्त पर्व (महाभारत) में ही धर्म के मर्म के आधार पर सम्पूर्ण लोक के टिके रहने की बात कहते हैं। जनमेजय के समकालीन काशी नरेश के पुत्र, इतिहास पुरुष तीर्थंकर पार्श्वनाथ, देववाद व यज्ञवाद का खंडन करते हैं और हिंसात्मक यज्ञों की निंदा करते हैं। उन्हें जाति-व्यवस्था मान्य नहीं है। धर्म के अनुरूप वे चार व्रतों को प्रचारित करते हैं। (1) जीवित प्राणियों की हत्या न करना (2) सदा सत्य बोलना (3) कभी चोरी न करना (4) कोई संपत्ति न जोड़ना यानी अपरिग्रह करना । उनके अनुसार धर्म का यह मर्म सामने आया।
महावीर और बुध्द के अनुसार धर्म क्या है ? –
पार्श्वनाथ के ढाई सौ वर्ष बाद चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी उपस्थित हुए, जिन्होंने धर्म के उपरोक्त चार व्रतों में पांचवां व्रत ‘ब्रह्मचर्य’ जोड़ा। और जैन आगमों में अट्ठारह पाप आवश्यक सूत्र में बताए हिंसा, झूठ, चोरी, क्रोध, राग-द्वेष, चुगली, असंयम, परनिंदा, कपट आदि।
महावीर के 32 वर्ष बाद उनके समकालीन गौतम बुद्ध हुए, उन्होंने धर्म का मर्म बताया ‘अष्टांगिक-मार्ग।’ यह मार्ग तीन स्कंधों में कहा गया। प्रथम-प्रज्ञा स्कंध में इस प्रकार बताये हैं ।
- सम्यक-दृष्टि
- सम्यक-संकल्प
- सम्यक-वाणी, द्वितीय शील स्कंध में
- सम्यक-कर्मान्त
- सम्यकआजीव, तृतीय-समाधि स्कंध में
- सम्यक-व्यायाम
- सम्यक-समाधि आते हैं।
इन तीन स्कंधों में आठों अंग सम्यक मार्ग को इस प्रकार बताते हैं –
- दृष्टि-नीर-क्षीर, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, सदाचार-दुराचार, चार आर्य सत्यों को पहचानने की दृष्टि ।
- संकल्प-कामना व हिंसा से मुक्त संकल्प
- वाणी-सत्य, विनम्रता व मृदुलता की वाणी हो
- कर्मान्त-सत्कर्म हो
- आजीत-जीवन यापन की शुद्ध प्राणशक्ति हो
- व्यायाम विशुद्ध ज्ञान युक्त प्रयत्न हों
- स्मृति-ध्यान रखे कि समस्त कार्य विवेक व सावधानी के हों समाधि-चित में सद्बुद्धि व एकाग्रता बनी रहे।
बुध्द ने ये आठों सम्यक मार्ग ही अष्टांगिक मार्ग बताये हैं ।
धर्म निर्पेक्षकता पर गांधी जी के विचार –
भारतीय संविधान में भारत गणराज्य को ‘सेक्यूलर स्टेट’ कहा गया है। और इसका अनुवाद ‘धर्म-निरपेक्ष राज्य’ के रूप में किया गया है, जबकि गांधी जी के विचारों के अनुसार धर्म की भूमिका राज्य में सापेक्ष होनी चाहिए। उन्होंने कहा है ”वस्तुतः हमारा प्रत्येक कार्य धर्म से व्याप्त होना चाहिए, यहां धर्म का आशय सम्प्रदायवाद से नहीं है। इसका आशय विश्व के व्यवस्थित नैतिक शासन से है, इसलिए अवास्तविक नहीं है।” (हरिजनः 10-2-1940 पृष्ठ-145) ऐसी स्थिति में धर्म के मर्म को ध्यान में रखते हुए संविधान में वर्णित सेक्यूलर स्टेट का अनुवाद सम्प्रदाय अथवा पंथ निरपेक्ष राज्य के रूप में उपस्थित किया जाना चाहिए। क्योंकि वर्तमान अनुवाद धर्म निरपेक्ष’ के शब्द ने स्थिति को काफी भ्रांत किया है। और धर्म को गलत तरीके से पंथ या संप्रदाय के एवज में लाकर खड़ा किया गया है। यहां इस यथार्थ पर ध्यान जाना आवश्यक है, कि जिस प्रकार सत्य के रूप में सत्य का कोई दूसरा अर्थ नहीं हो सकता है। वैसे ही धर्म की सार्वभौमिकता किसी पंथ या संप्रदाय द्वारा खंडित नहीं की जा सकती है। यह एक अलग स्थिति है, जिसमें सांप्रदायिक शक्तियां संप्रदाय को ही धर्म समझ बैठी हैं। और ऐसी उभरती सांप्रदायिकता का निषेध अनिवार्य रूप से होना ही चाहिए।
गांधीजी से पूर्व सार्वभौम धर्म की विशद व्याख्या जैन धर्म के श्वेतांबर पक्ष में तेरापंथ के संस्थापक आचार्य भिक्षु ने की है। यद्यपि कि गांधीजी ने आचार्य भिक्षु के साहित्य का अध्ययन नहीं किया था। आचार्य भिक्षु ने जिस संप्रदाय-निरपेक्ष सार्वभौम धर्म की व्याख्या की है, उस व्याख्या में बताया है कि ‘कोई व्यक्ति किसी भी देश और काल में निरवद्य करणी करता है, वह धर्म है, ऐसा व्यक्ति किसी संप्रदाय का अनुयायी नहीं हो, फिर भी उसमें पूर्ण धर्म का अस्तित्व है।’ और यह भी कहा है, कि जिन महावीर का यह सिद्धांत सार्वभौम-धर्म की अवधारणा का स्वर्ण सूत्र है। आचार्य भिक्षु ने संप्रदाय और परम्परा को समुचित मूल्य दिया, लेकिन धर्म को उन्होंने संप्रदाय की सीमा में बांधकर रखना उचित न समझा, क्योंकि संप्रदाय की अपनी आचार-संहिता, पहचान व वेश भूषा तथा आस्था और अनुशासन अलग होता है।
भारत में वर्तमान स्थिति –
देखा जाए तो अन्य देशों की तरह भारत में वर्तमान में सांप्रदायिक अभिनिवेश बहुत अधिक बढ़ा है और वह उत्तेजना एवं संघर्ष को भी उभारता रहता है। धार्मिक कहे जाने वाले तथा कथित लोग संप्रदाय को ही धर्म मानकर धर्म के नाम पर उन्माद फैलाते हैं और भूल जाते हैं कि सांप्रदायिक उन्माद फैलाना कतई धर्म नहीं है, बल्कि धर्म के विपरीत कार्य है। संप्रदाय अथवा पंथ यद्यपि आत्मा-धर्म तथा सामाजिक कर्तव्यों के प्रति बिल्कुल उदासीन रहते हैं, यह तो नहीं कहा जा सकता है। परंतु उनके अपने अनुशासन, अंध-विश्वास, परम्परा, ढकोसले और कई बार विभिन्न प्रकार के पाखंड जुड़ जाते, जिन्हें धर्म समझकर वे प्रचारित करते हुए अपने संप्रदाय को अन्यों से श्रेष्ठ बताकर प्रतिस्पर्धा का वातावरण तैयार करने में हिंसा (बल प्रयोग) को भी प्रोत्साहित करने से परहेज नहीं करना चाहते हैं। और कहीं दान के नाम पर भिखारी पन का प्रसार करते हैं या कुपात्रों को उकसाते हैं।
संप्रदायों के ऐसे अटपटे कविपय आचरणों को धर्म के रूप में प्रचारित करने के कारण ही शायद मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा में उद्घोषित किया, क्योंकि संप्रदायो का उक्त आचरण नैतिक, सत्य और धर्म-सम्मत नहीं है। जाहिर है कि धर्म के मर्म में जो सत्य व नैतिकता निहित है, उसकी उपयोगिता को तो मार्क्स भी नकार नहीं सके हैं। इन सारी स्थितियों के मद्देनजर इस प्रसंग में ‘सेक्यूलर स्टेट’ का सही और आवश्यक अनुवाद ‘संप्रदाय अथवा पंथ निरपेक्ष राज्य’ हो सकता है, धर्म-निरपेक्ष नहीं, इसलिए यह विवाद का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए । हमें आशा है कि मैं आपको Secularism in India in Hindi – पंथ निरपेक्षता और धर्म निरपेक्षता में अंतर को समझा पाने में कामयाब रहा होऊंगा ।।
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