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केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान – भरतपुर की बर्ड सैंक्चुरी

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान या भरत पुर की बर्ड सैंक्चुरी  राजस्थान में स्थित एक प्रसिद्द पक्षी विहार  है। पहले इसको भरतपुर पक्षी विहार के नाम से जाना जाता था। इस विहार में हजारों की संख्या में दुर्लभ और विलुप्त प्रजाति  के पक्षी पाए जाते हैं, इनमें से साईबेरिया से आये सारस  प्रमुख होते हैं, जो खाशकर यहाँ सर्दियों के मौसम में आते हैं। यहाँ पर २३० प्रजाति के पक्षियों ने इस  राष्ट्रीय उद्यान में अपना प्रवास  बना रखा है। केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान अब  एक बहुत बड़ा पर्यटन स्थल और पर्यटकों का केन्द्र बन गया है, यहाँ  पर बहुत अधिक संख्या  में पक्षी विज्ञानी शीत ऋतु में पक्षियों पर रिचर्स करने के लिए आते  हैं। इस उद्यान को सन्न  १९७१ में संरक्षित पक्षी अभयारण्य घोषित किया गया और बाद में १९८५ में इसे ‘विश्व धरोहर’ भी घोषित कर दिया  गया है।

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान का इतिहास

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान  का निर्माण आज से २60 वर्ष पहले किया गया था और उस समय इस का नाम ‘केवलादेव’ एक शिव मंदिर के नाम पर रखा गया था। यह शिव मंदिर इसी पक्षी विहार में स्थित है। यहाँ पर प्राकृतिक ढ़लान होने के कारण, अक्सर बाढ़ का सामना करना पड़ता था। उस समय के भरतपुर के शासक महाराज सूरजमल (१७२६ से १७६३) ने यहाँ अजान  नामक बाँध का निर्माण करवाया था , यह बाँध दो नदियों गँभीर और बाण गंगा के संगम पर बनाया गया था ।

पार्क  में स्थित शिवजी के मंदिर के नाम पर बना केवलादेव नेशनल पार्क किसी जमाने में राजा का निजी शिकारगाह हुआ करता था। इसके भीतर केन्द्रीय कैंटीन के नजदीक बने बोडौँ पर आज भी अंकित है कि किस राजा ने अपनी यात्रा पर कितने हजार पक्षियों का शिकार किया। इस फेहरिश्त में अंग्रेजी आकाओं की इन खूरेज या कि लेआम यात्राओं का विस्तृत ब्यौरा है। इनमें से कोई भी यात्रा चार-छह हजार पक्षियों की हत्या के बगैर सफल नहीं समझी जाती थी। जाहिर है कि इन आकाओं में इस बेरहमी से यदि लाखों-लाखों रीह पक्षियों को अपनी बंदूकों का निशाना न बनाया होता यह पक्षी विहार आज कहीं अधिक आबाद और चह-चहाहटों से भरा हुआ होता।

एक अन्य स्तर पर सोचें तो हजारों मील का सफर तय करके नाए प्रवासी अतिथि पक्षियों को अपनी बंदूकों का शिकार बनाने से जघन्य अपराध कोई दूसरा नहीं । सकता। इस भयानक सामूहिक हत्या के समानांतर हमारे देश में जोधपुर के फलौदी गांव में हर वर्ष आने वाले हजारों डैमोसेइल सारस ‘कुरजा’ को गांव वाले कई सौ वर्षों से भगवान की तरह पूजते आए हैं और इन पक्षियों का गुण बखान करते अनेकों लोकगीत वहां के बच्चे-औरतों के मुंह से सुने जा सकते हैं।

किसी समय यह उद्यान भरतपुर के महाराजाओं की पसंदीदा शिकार गाह हुआ करता था, जिसकी परम्परा १८५० से भी पहले से थी। अंग्रेज राज में यहाँ पर ब्रिटिश वायसराय के सम्मान में पक्षियों के सालाना शिकार का आयोजन किया जाता  था। यहां पर सन्न १९३८ में करीब ४,२७३ पक्षियों का शिकार सिर्फ एक ही दिन में कर दिया  गया था । स्वतंत्रता के बाद भी १९७२ तक भरतपुर के पूर्व राजा को उनके क्षेत्र में शिकार करने की अनुमति सरकार द्वारा दी गयी थी, लेकिन तत्कालीन सरकार द्वारा १९८२ से इस उद्यान में चारा लाने  पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया था जिस कारण से  यहाँ के किसानों, गुर्जर समुदाय और सरकार के बीच हिंसक लड़ाई हुई थी ।

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा 

1956 में केवलादेव नेशनल पार्क को पक्षी विहार का दर्जा मिला और 1982 में इसे राष्ट्रीय उद्यान बना दिया गया। आज यह पक्षी विहार दुनिया के उन गिने-चुने स्थलों में से है जहां जल में रहने वाले पक्षी इतनी भारी संख्या में सुदूर प्रदेशों से आते हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा अब इसे वर्ल्ड हेरिटेज साइट यानी दुनिया की महान पारम्परिक संपदाओं का खिताब भी मिल चुका है। पूरी दुनिया से पक्षी मी इस उद्यान का रुख करते हैं, लेकिन इस लोकप्रियता के बावजूद इस पार्क के इर्द-गिर्द पर्यटकों की सुविधाएं एक हद तक अपर्याप्त हैं।

केवलादेव नेशनल पार्क भरतपुर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह 29 वर्ग किलोमीटर के छोटे से क्षेत्रफल में फैला है, जिसकी वजह से आप इसके पूरे इलाके को बहुत अच्छी तरह देख सकते हैं। तुलना के लिए नजदीक ही स्थित रणथंभौर का राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्रफल में इस पक्षी उद्यान से कोई 60 गुना अधिक बड़ा होगा। यही नहीं केवलादेव पार्क के भीतर सड़कों और रास्तों का जो -सीधा जाल बिछा है, जिस पर आप अपनी स्वयं की रफ्तार मनचाहे ढंग से तय कर सकते हैं। आमतौर पर नेशनल पार्कों में वन्य जानवरों के चलते पैदल चलने या जीप से नीचे उतरने तक की मनाही होती है, लेकिन केवलादेव पार्क में ऐसी कोई बंदिश नहीं है, हालांकि यहां पक्षियों के अतिरिक्त दूसरे जानवरों का भी समावेश है।

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान घूमने के लिए उपयुक्त वाहन 

पर्यावरण की दृष्टि से इस पार्क में किसी भी तरह के पेट्रोल या डीजल वाले वाहन का प्रवेश सवर्था वर्जित है समय-समय पर यहाँ बैटरी  वाली गाड़ियों की व्यवस्था रहती है, लेकिन यहां की सबसे उपयुक्त और लोकप्रिय सवारी है साइकिल रिक्शा जिस पर बैठकर आप इस तेज रफ्तार जिंदगी की जहरीली व्यस्तताओं को भूलकर खिरामां-खिरामां इस पार्क के बाशिंदों से साक्षात्कार कर सकते हैं। सरकार की ओर से अधिकृत साइकिल रिक्शा चालकों की दर भी मुकर्रर है, और मजे की बात यह है कि इन अधिकृत रिक्शा चालकों में से अधिकांश को पक्षियों और जानवरों की अच्छी खासी जानकारी भी है, यानी आप दूसरे अधिकृत गाइड की सेवाएं लेने की जगह रिक्शा वाले के अनुभव से भी बखूबी काम चला सकते हैं।

यदि आप पक्षियों की दुनिया से बहुत और पहली बार इस पार्क में आ रहे हैं तो अपने साथ एक दूरबीन अवश्य लाएं, क्योंकि पक्षियों को नजदीक से देखने एवं उन्हें पहचानने में इससे बहुत मदद मिलेगी। पक्षियों संबंधी किताब भी अत्यंत उपयोगी होगी।

Keoladeo National Park में पाए जाने वाले पक्षी 

पार्क का सबसे सुपरिचित पक्षी है ‘जांघिल स्टॉर्क’। जैसा कि इसके नाम से जाहिर है, इसके पंखों को देखते हुए यूं लगता है जैसे किसी ने इसके पंखों पर कूची से रंग लगा दिया हो। पक्षी विहार में सर्दी के मौसम में हजारों जांघिलों के घोंसले सड़क के दोनों ओर दिखाई देंगे जिनमें सारस के बच्चे अपने अभिभावकों द्वारा लाए जाने वाले भोजन के इंतजार में फड़ फड़ाते हुए नज़र आ जाएंगे। छोटे जांघिल अपने माता पिता की तरह इतने रंगीन नहीं होते ।

पार्क में जांघिल के आलावा सबसे बड़े आकार के काली गर्दन वाले लोहार जंग या ‘ब्लैक नेक स्टॉर्क’ भी आपको मिल जाएंगे। और यदि किस्मत ने आपका साथ दिया तो कदम के पेड़ों के बीच फैले दल दली मैदानों में आप भारतीय सारस का मोहक नृत्य भी देख सकते हैं।  केवलादेव राष्ट्रीय उड़ान शायद एक मात्र ऐसा पक्षी विहार है जहां इतनी थोड़ी सी जगह में पक्षियों की चार सौ से भी अधिक प्रजातियां देखी जा सकती हैं। इनमें भी सारसों और पानी के दूसरे पक्षियों की यहां बहुतायत है। कुछ अन्य सुपरिचित पक्षी हैं घोंघिल (‘ओपन बिल’), चमचा सारस (‘स्पूनबिल’), हाजी लगलग (‘वूली नेक स्टॉर्क’) और सफेद बुज्जा (‘ब्लैक हेडेड आइबिस’)। आमतौर पर यहां हवासिल ‘पेलिकेन’ भी काफी मात्रा में यहाँ आते हैं ।

पानी के आसपास की फुनगियों पर आप बहुत से छोटे-बड़े पनकौवों को धूप में पंख सुखाते देखेंगे। और इनमें भी खास है बानवै (‘डार्टर’) या सर्प पक्षी जिसकी सांप जैसी गर्दन धूप में चमकदार और लचीली दिखाई देती है। बगुलों की तरह स्थितिप्रज्ञ होने के बाद यह अचानक फुर्ती से मछली पकड़ता है। सर्दियों में केवलादेव में कोई एक दर्जन अलग-अलग किस्म की बत्तखों की शिनाख्त आप कर सकते हैं। इनमें गुगराल (‘स्पॉट बिल्ड डक’) गिरी (‘कॉटन पिगमी गूज’) स्थानीय हैं, जबकि इस बार नकटा (‘कोम्ब डक’) के साथ-साथ सिलेटी सवन (‘ग्रेलैग गूज’ ) जो साइबेरिया से आती है भी भरपूर मात्रा में दिखाई दे रही हैं। शाम के समय जब सूरज ढलने लगता है तो पेड़ों और टहनियों पर बैठी बत्तखें एक अलौकिक सा माहौल पैदा करती हैं।

पार्क में चूंकि पक्षियों और उनके घोंसलों की बहुतायत है, इसलिए स्वाभाविक है कि यहां मांस भक्षी चीलों, सांपों और गोह जैसे जानवर भी काफी हैं। इन्हीं के साथ केवलादेव की एक और खासियत है यहां दस से भी अधिक प्रकार के उल्लू, जिन्हें शायद आप रिक्शा चालक या गाइड की मदद के बगैर नहीं देख पाएंगे। उल्लू अधिकांशतः दिन में एक ही ठिकाने पर लौटकर आता है और रिक्शा वाले इन ठिकानों से बखूबी परिचित होते हैं। किस्मत अच्छी हुई तो आप इनमें से कुछ की तस्वीरें भी खींच सकते हैं। आप कुछ  दूर से एक बड़े धुंइयां घुघ्यू (‘डस्की आउल’) का घोंसला देख सकते हैं  जिसमें नर उल्लू बहुत धैर्य से अंडों पर बैठा था। वह  शाम तक अंडों की रखवाली के लिए यहां से हिलेगा तक नहीं। शाम को छह बजे के आसपास श्रीमती उल्लू आएगी और अंडों पर बैठने की रात पारी की जिम्मेदारी उठाएगी। तब कहीं जाकर मिस्टर उल्लू इस घोंसले से हटकर शिकार पर निकलेगा। यहां पर एक अन्य पेड़ पर गलापट्टी चुगद (‘कॉलर्ड स्कॉप्स आउल’) आंखें बंद किए बैठा मिल जायेगा ।

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में अन्य घूमने एक स्थान 

केवलादेव में दलदली मैदानों में भरे पानी के अलावा पेड़ों की भी भरमार है और इनके बीच आप बहुत सारे बगीचों व जंगलों के पक्षियों को भी देख सकते हैं। सर्दियों में इसमें बहुत सारे प्रवासी पक्षी भी  शामिल हो जाते हैं। सफेद कान वाली बुलबुल यहां के पेड़ों की खास पहचान है। पार्क के एक हिस्से में नौका विहार की भी व्यवस्था है, लेकिन जो मजा यहां पैदल घूमने में है, वह नाव में नहीं मिलेगा

पार्क के दक्षिण में एक बड़ा तालाब हंस सरोवर है जिसके चारों तरफ पैदल चलने का रास्ता है। यहां आधे रास्ते से आगे रिक्शा नहीं जाता है। इस पर चलने का एक अच्छा तरीका यह है कि आप रिक्शे वाले को दूसरे छोर पर बुला लें और स्वयं इस रास्ते पर पैदल चलें। यहाँ पर  छोटी सिल्ही बत्तख ‘लेसर व्हिसलिंग डक’ के झुंड भी मिल सकते हैं । कुछ आगे पानी के किनारे खड़े पेड़ पर शाहूतेला चूहामार चील ‘ओरियंटल हनी बर्जर्ड’, शिकार के इंतजार में बैठी मिल जाती हैं । रास्ते के इस छोर से दूसरे छोर तक एक विशालकाय गोह पसरी बैठी मिल जाएगी , कम से कम छह-सात फीट लंबी ! इस पार्क में गोह अक्सर दिखाई दे जाएगी। उसे देखकर घबराएं नहीं, न ही शोर मचाएं या हिले-डुलें। यह बिल्कुल खतरनाक नहीं है। कुछ समय बाद यह धीरे-धीरे अपने रास्ते निकल जाएगी।

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में पाए जाने वाले जानवर 

वन्य जानवरों में रुचि रखने वाले पर्यटकों को भी केवलादेव पार्क निराश नहीं करेगा। चूंकि पार्क का क्षेत्र सीमित है, इसलिए इन जानवरों को नजदीक से देखना भी संभव है। सांभर, नीलगाय, चीतल, बनैले सूअर, गीदड़ और जंगली बिल्ली के अलावा कई बार यहां जरख और भेड़िए भी दिख जाते हैं। और इस पार्क का एक और आकर्षण है यहां के विशालकाय अजगर । पार्क के भीतर इन अजगरों की कई बिलें हैं जिनके ठिकाने यहां के गाइडों और रिक्शा चालकों को बखूबी मालूम हैं। सर्दियों की दोपहर में ये अजगर अपनी बिलों से बाहर धूप सेंकने के लिए निकल आते हैं और दबे पांव, बिना कोई आवाज किए एक फासले से आप इन्हें देख सकते हैं। इन अजगरों को किसी भी तरह परेशान करना सख्त मना है, लेकिन विशालकाय अजगर देखने से भी ज्यादा खुशी पार्क के एक छोटे से और निहायत खूबसूरत बाशिंदे जंगली चूहे ‘पिका’ को देखकर होती है । उर्दू के एक शेर का हिंदी तर्जुमा है जंगली चूहा ‘पिका सुरूर जाम की मिकदार पर नहीं निर्भर शराब कम है तो साकी नजर मिला के पिला। साकी की नज़रों में सुरूर ढूंढ़ सकने वाली इन्हीं निगाहों के साथ अगर आप केवलादेव पार्क भरतपुर जाएंगे तो आपको कभी निराशा नहीं होगी, यह मेरा वादा रहा।

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान कैसे पहुंचें 

भरतपुर राजस्थान का एक मुख्य शहर है। केवलादेव पक्षी विहार शहर की सरहद पर ही सिथित है। यहाँ का सबसे नजदीक हवाई अड्डा जयपुर यहां से 176 किलोमीटर फासले पर है। भरतपुर, मुंबई और दिल्ली से सीधी रेलगाड़ियों द्वारा जुड़ा है। दिल्ली-कोटा शताब्दी दिल्ली से दोपहर में चलकर ढाई घंटे में पौने चार बजे भरतपुर पहुंच जाती है। मुंबई से गोल्डन टेम्पल मेल रात में साढ़े नौ बजे चलकर अगले दिन दोपहर के तीन बजे भरतपुर पहुंचती है। जयपुर से सीधी गाड़ियों के अतिरिक्त बस द्वारा लगभग चार घंटे में भरतपुर पहुंचा जा सकता है। दिल्ली और जयपुर से भरतपुर की सड़क काफी अच्छी है। गाड़ियों के चलने के समय एक बार स्वयं सुनिश्चित कर लें।

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में ठहरने का प्रबंध 

भरतपुर में पक्षी विहार के नजदीक अनेकानेक होटल हैं जहां नेट से ऑन लाइन  बुकिंग की जा सकती है। पक्षी विहार के भीतर एक मात्र आई टी डी सी का होटल है, जो कुछ महंगा है। आरटीडीसी का होटल ‘सारस’ बिल्कुल विहार के नजदीक है और यहां ठहरने की अच्छी व्यवस्था है जो बहुत महंगी नहीं है। यहां से आप विहार पैदल भी जा सकते हैं या फिर होटल के सामने खड़े अधिकृत रिक्शों में से किसी एक को चुन सकते हैं। इनका रेट 100  रुपए प्रति घंटा है। विहार में प्रवेश के लिए प्रति व्यक्ति 50 रुपए का टिकट है। विहार के आसपास कई रेस्तरां हैं, लेकिन अधिकांश महंगे हैं और इनका खाना भी बहुत अच्छा नहीं है। यदि आप ढाबे का खाना पसंद करते हैं तो शहर की तरफ कई अच्छे और सस्ते स्थान मिल जाएंगे।

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान के समीप के अन्य पर्यटक स्थल   

भरतपुर से नजदीक ही फतेहपुर सीकरी 22 किलोमीटर के फासले पर है और आप चाहे तो भरतपुर में रहते हुए डीग के महल और वृंदावन या आगरा का कार्यक्रम बना सकते हैं। यहां से रेल द्वारा सवाई माधोपुर (रणथंभौर) की यात्रा भी कर सकते है। भरतपुर में मिठाई की कई अच्छी दुकाने हैं। विशेष कर इमरती बहुत प्रसिद्द है ।

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में जानें का समय 

केवलादेव पक्षी विहार पर्यटको के लिए सारा साल खुला रहता है, लेकिन मई से लेकर जून-जुलाई तक गर्मी रहती है और फिर जुलाई से सितम्बर तक बारिश। इसके बाद से लेकर मार्च तक का समय पार्क के लिए सर्वोत्तम है। पक्षी अक्टूबर के बाद यहां आने शुरू हो जाते है और फिर मार्च तक रहते हैं। यदि आप सारा दिन विहार में बिताना चाहते हैं तो सुबह तड़के छह बजे तक निकलना ठीक होगा। अपने साथ खाने का सामान और पानी रख लें। विहार के भीतर एक छोटी सी सफेद कान वाली कैंटीन है जहां चाय-बिस्कुट भर मिलता है। इन्हें आप लगभग पालतू हो चुके दर्जनों जगल बैबलर और एक अदद भुक्खड़ नीलगाय के साथ बाट सकते हैं।

एक दूसरा तरीका यह है कि आप सुबह का वक्त विहार में गुजारने के बाद दोपहर के समय बाहर आ जाएं और खाने के बाद फिर से विहार लौट जाए। ऐसे में प्रवेश के टिकट दुबारा लेने होंगे। आप अपने  साथ फूस की एक हैट जरूर रखें, धूप से बचने के लिए। शाम को साढ़े पांच बजे पार्क बंद हो जाता है । पार्क के भीतर यथासंभव पैदल चलें और जरूरत हो तो रिक्शा साथ रखें। पार्क के भीतर एक बिजली से चलने वाली गाड़ी की व्यवस्था भी है, लेकिन इसमें बैठकर आप कुछ खास देख नहीं पाएंगे। यदि आपके पास पर्याप्त समय है और पक्षियों एवं जानवरों में आपकी रुचि है तो आप दो या तीन दिन यहां की यात्रा के लिए रख सकते हैं ।।

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