दलाई लामा एक तिब्बती परम्परा और एक पद है, जो तिब्बत के सर्वोच्च धर्मगुरु को दिया जाता है। चौदहवें दलाई लामा को दुनिया संघर्ष के लिए पहचानती है जिनका नाम जेटसन जेमफेल गवांग लोबसेंग येशी तेनजिन ग्यात्सो का जन्म 6 जुलाई, 1935 को चिंग हई में हुआ। पूरी दुनिया में उन्हें तिब्बतियों के राजनीतिक व आध्यात्मिक नेता के रूप में जाना और माना जाता है। उन्होंने तिब्बती बौद्ध प्रणाली के गिलूग स्कूल का प्रभाव बढ़ाया है, इसी स्कूल में दलाई लामा ने बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण की थी। उनकी प्रसिद्धि एक नोबेल शांति पुरस्कार विजेता, एक महान बौद्ध संत और निर्वासित तिब्बती सरकार के अगुआ के रूप में पूरी दुनिया में फैली हुई है। यह निर्वासित सरकार भारत के धर्मशाला से अपने कार्यों का संचालन करती है। आज हम इस लेख के माध्यम से दलाई लामा का जीवन परिचय एवं दलाई लामा का अर्थ और तिब्बत में बौद्ध धर्म का इतिहास जानेंगे ।
दलाई लामा का अर्थ –
दलाई लामा एक उपाधि है जो किसी विशेष व्यक्ति को प्रदान की जाती है। यह विशेष व्यक्तित्व बौद्ध धर्म के गिलुग संप्रदाय का आध्यात्मिक नेता होता है। दलाई लामा के संबंध में यह विश्वास किया जाता है कि यह तुल्कुओं की लंबी परम्परा का वर्तमान अवतार है। बौद्ध धर्म के अनुसार तुल्कु वह आत्मा होती है जिसे बुद्धत्व की प्राप्ति हो चुकी है और वह जन्म-मरण के चक्र से भी मुक्त हो चुका है। लामा का अर्थ शिक्षक होता है। इस शब्द का प्रयोग तिब्बती बौद्ध विश्वास के बहत सी उपाधियों में होता है जैसे करमापा लामा, पंचेन लामा । 17 वीं शताब्दी के मध्य से लेकर 1959 तक दलाई लामा ही तिब्बत का सर्वोच्च पद होता था । 1959 के बाद से दलाई लामा भारत से तिब्बत के प्रशासन को संभाल रहे हैं ।
दलाई लामा को बौद्ध विश्वास के गिलूगस्कूल का सर्वोच्च अधिकारी और चिंतक भी माना जाता है, लेकिन आधिकारिक रूप से अब यह पद गंदन त्रीपा को अस्थायी तौर पर दलाई लामा द्वारा सौंप दिया गया है। तिब्बती लोग आमतौर पर दलाई लामा को परम्परा के अनुसार ग्यालवा रिनपोचे या येशे नोरबू के नाम से पुकारते हैं। इस संबोधन का अर्थ मूल्यवान विजेता या इच्छा पूरी करने वाला रत्न होता है। वैश्विक स्तर पर उन्हें हिज होलीनेस द दलाई लामा के नाम से संबोधित किया जाता है। हरेक दलाई लामा के नाम के आगे उनकी पदसंख्या जोड़ दी जाती है, जो यह बताती है कि पहले कितने लोग इस उपाधि को प्राप्त कर चुके हैं। जैसे फिलहाल पद पर आसीन दलाई लामा चौदहवें हैं और इनके बाद पद पर आसीन होने वाले दलाई लामा पंद्रहवें दलाई लामा कहलाएंगे।
नए दलाई लामा की खोज –
हिमालय की परम्पराओं के अनुसार फोआ एक परम्परा का नाम है जिसके तहत कोई अपने दिमाग के प्रवाह को निश्चित शरीर में प्रवाहित करता है। इसी प्रक्रिया से नए दलाई लामा का जन्म होता है। दलाई लामा की मृत्यु के पश्चात देववाणी से विचार-विमर्श किया जाता है। देववाणी ईश्वर से मिलने वाले इशारे होते हैं, जो भावी दलाई लामा को खोजने में सहायता प्रदान करते हैं। इसके बाद दलाई लामा के नए अवतार को खोजने की मुहिम शुरू होती है। यह खोज येग्सी या येंग सीड कहलाती है। पूर्व दलाई लामा ही नए तुल्कु या आत्मा को खोजने का मुख्य संकेत देते हैं। इस खोज को पूरा होने में कई बार वर्षों लग जाते हैं। नए खोजे गए दलाई लामा की पूरी शिक्षा-दीक्षा अन्य लामाओं की तरह ही होती है। (दलाई लामा का जीवन परिचय एवं दलाई लामा का अर्थ)
चौदवें दलाईलामा की खोज –
तेरहवें दलाई लामा के प्रयाण के बाद एक दल को दलाई लामा के नए अवतार को खोजने का कार्यभार सौंपा गया। खोज के दौरान एक नया लक्षण उभर कर आया जिसने नए लामा को खोजने में अहम भूमिका अदा की। तेरहवें लामा के पवित्र शव का सिर जो दक्षिण दिशा की ओर देखते हुए रखा गया था, उसकी दिशा रहस्यमयी रूप से बदल कर उत्तर-पूर्व हो गई थी। इसी आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि अगले दलाई लामा ने इसी दिशा में जन्म लिया है। खोजी दल के मुखिया को सपने में पवित्र तालाब ल्हामो लात्सो दिखा, जिसे दलाई लामा के पवित्र स्थल एम्डो के रूप में चिह्नित किया गया। साथ ही उन्हें एक मंजिल का मकान भी दिखा जिसमें खास तरह की पानी निकासी व्यवस्था थी और विशेष प्रकार की खपरैल से ढंका गया था।
सघन खोजबीन के बाद दल को एक घर मिला जो स्वप्न के घर से मिलता-जुलता था। इस घर में थोनडप नाम का दो वर्षीय बालक था। थोनडप चौदहवें दलाई लामा के बचपन का नाम था। खोजीदल ने थोनडप को बहुत सारे स्मृति-चिह्न और खिलौने दिए। उनमें से कुछ पूर्व दलाई लामा से संबंधित थे और कुछ साधारण थे। इस बात को प्रमाणित किया गया कि थोनडप ने पूर्व दलाई लामा के खिलौनों को एकदम ठीक से पहचाना और चिल्लाने लगे- ये मेरे हैं! ये मेरे हैं! आखिर में दल की खोज थोनडप पर आकर समाप्त हो गई। खोजी दल को अपनी मंजिल मिल गई थी। यही थोनडप दलाई लामा के रूप में स्वीकार किया गया और इस नए अवतार का नाम बदल कर जेटसन जेमफेल गवांग बसेंग येशी तेनजिन ग्यात्सो रखा गया। इसका मतलब होता है- पवित्र ईश्वर, सौम्य ज्योति, करुणा के अवतार, आस्था के संरक्षक, विद्वता के समुद्र।
बोधज्ञान और सत्य
चौदवें दलाईलामा का जन्म एवं पारवारिक पृष्ठ भूमि –
चौदहवें दलाई लामा का नाम जेटसन जेमफेल गवांग लोबसेंग येशी तेनजिन ग्यात्सो है , जिनका जन्म 6 जुलाई, 1935 को चिंग हई में एक किसान परिवार में हुआ। उनके अभिभावक चोकयोंग और डीकी सेरिंग आय के लिए पूरी तरह से किसानी पर ही निर्भर थे । तेनजिन कुल सोलह भाई बहन थे लेकिन उनमें से केवल 9 ही जीवित बचे , तेनजिन का नंबर पांचवां था । सबसे बड़ी बहन जेरिंग डोलमा तेनजिन से पूरे अट्ठारह साल बड़ी थी। उनका सबसे बड़ा भाई थुपटन जिग्मे नोरबू को हाईलामा टसर रिनपोचो के तौर पर पहचाना जाता जाता है। उनकी बहन जेटसन पेमाको 1997 में फिल्म सेवन ईयर्स इन तिब्बत में उनकी मान के रूप में चित्रित किया गया है । बच्चों की पर ही निर्भर थे। तेनजिन कुल सोलह भाई-बहन हुए, लेकिन उनमें से नौ ही जीवित बचे। तेनजिन का नंबर पांचवां तिब्बत में उनकी मां के रूप में चित्रित किया गया। उनके अन्य बड़े भाई है ग्यालो धोनडप और लोबसेंग सेमडन थे ।
दलाईलामा का प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा –
दलाई लामा ने अपनी आध्यात्मिक शिक्षा की शुरुआत छह साल की उम्र से की। नन्हे दलाई लामा भी अन्य साधारण तरह मठ के प्रासाद को अपने कदमों से नापना चाहते थे। वे चाहते थे कि और बच्चों की तरह उन्हें भी खेलने का मौका मिले। हालांकि उनको इस बात की भी खबर थी कि वे कुछ खास हैं। उनके माता-पिता का व्यवहार भी अन्य अभिभावकों से अलग था। आखिर में अपनी तमाम इच्छाओं को किनारे रखकर उन्होंने ज्ञान के मार्ग को चुना क्योंकि वे आने वाले तिब्बत के भविष्य थे। तेनजिन के अंदर का बच्चा अभी पूरी तरह से बाहर नहीं निकल सका था । शायद यही वजह है कि आज भी इस वृद्ध में अब भी बच्चों वाली बात है। बौद्ध दर्शन को समझना तेनजिन के लिए आसान न था, लेकिन उनके शिक्षक प्रतिबद्ध थे और कठोर भी।
उनके मुख्य शिक्षकों में योगजिन लिंग रिपोचे और योगाजन त्रिजेन रिनपोचे शामिल हैं। 1939 में दलाईलामा को पहली बार ल्हासा में लामाओं के एक बड़े शोभा यात्रा में शामिल होने का अवसर प्राप्त हुआ । यहीं पर एक अधिकारिक संस्कार में उन्हें तिब्बत के नए धार्मिक नेता के रूप में स्वीकार किया गया। उनका बचपन पोटाला और नोरबुलइंगका के ग्रीष्मावासों में बीता। ग्यारह साल की उम्र के बाद दलाई लामा इतने समझदार हो चुके थे कि उन्हें बाहरी दुनियां के बारे में भी बताए और समझाए जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। ऐसे शिक्षक की तलाश की जाने लगी जो इस जिम्मेदारी को उठा सके । गहन छान-बीन के बाद ऑस्ट्रेलियाई पर्वतारोही हिनरिन हैरर को यह उत्तरदायित्व सौंपा गया। हैरर ने बखूबी इस दायित्व को निभाया भी और वे उन लोगों में शामिल हो गए जिन्होंने दलाई लामा के जीवन को गहरे तक प्रभावित किया। वे दोनों न सिर्फ अच्छे गुरु-शिष्य थे बल्कि उनकी दोस्ती हैरर की मृत्यु तक कायम रही। हैरर ने 2006 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। समय रेत की तरह मुठ्ठी से फिसल रहा था। था। (दलाई लामा का जीवन परिचय एवं दलाई लामा का अर्थ)
दलाई लामा के संघर्ष का दौर –
1950 के बाद वह दौर शुरू होता है, जहां से दलाई लामा का जीवन संघर्ष शुरू होने वाला था। 17 नवम्बर,1950 को महज पंद्रह साल की उम्र में तेनजिन को अस्थायी तौर पर तिब्बत की बागडोर सौंप दी गई ।यह वह समय था जब तिब्बत और चीन के बीच संबंधों में कड़वाहट का दौर शुरू हो रहा था। तेनजिन का शासनकाल बहुत ही छोटा रहा। उसी साल तिब्बत और चीन के बीच संबंधों में कड़वाहट का दौर शुरू हो रहा था। तेनजिन का शासनकाल बहुत ही छोटा रहा। उसी साल चीन की सेना ने तिब्बत की सीमाओं को न सिर्फ पार किया बल्कि तिब्बती सेना को आसानी से हराते हुए तिब्बत के प्रशासन को अपने हाथ में भी ले लिया।
दलाई लामा ने इस मसले को सुलझाने के लिए एक वार्तादल बीजिंग रवाना किया। दलाई लामा और तिब्बत प्रशासन ने चीनी सेना के भारी दबाव के बीच सत्रह सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर किया। दरअसल यह समझौता एकतरफा था। शाक्तिशाली चीनियों ने हारे हुए तिब्बतियों से मनमाने बिंदुओं पर सहमति दर्ज करवाई। शक्तिवान ही सही होता है, यह एक बार फिर से साबित हो गई। इससे पहले भी सितम्बर, 1954 में दलाई लामा और दसवें पंचेन लामा नेशनल पीपल्स कांग्रेस के पहले सत्र में भाग लेने के लिए तिब्बत रवाना हुए थे। माओ जिदोंग से मिलना उनका मुख्य लक्ष्य था। इस मुलाकात से कुछ भी उल्लेखनीय प्राप्त नहीं हो सका। चीनी तानाशाही बार-बार तिब्बतियों के आत्मसम्मान पर आघात कर रही थी।
1959 दलाई लामा के जीवन विशेष महत्व रखता है। इसी साल दलाई लामा को बौद्ध ज्ञान की मुख्य परीक्षा का सामना करना पड़ा। ल्हासा के जोकहेंग मंदिर में वार्षिक मोनलम उत्सव के दौरान परीक्षा का आयोजन किया गया। मोनलम एक तरह की प्रार्थना है जो निश्चित वार्षिक आयोजन के दौरान की जाती है। तेनजिन ने सम्मान पूर्वक परीक्षा उत्तीर्ण कर ली और इसी के साथ उन्हें दलाई लामा की उपाधि और लारम्पा डिग्री प्राप्त हुई। यह तिब्बत की सबसे बड़ी शैक्षिक उपाधि है जो बौद्ध दर्शन में डॉक्टरेट के समकक्ष मानी जाती है। तिब्बत के सबसे बड़े आध्यात्मिक नेता होने के साथ दलाई लामा परम्परागत तौर पर इस प्रदेश के सबसे बड़े राजनीतिक नेता भी माने जाते हैं।
1959 तक तिब्बती लोगों के असंतोष में भारी बढ़ोतरी हो चुकी थी तनाव भरे राजनीतिक माहौल में इस बात के कयास लगाए जाने लगे कि चीन दलाई लामा की हत्या करवा सकता है उनके समर्थक किसी तरह का खतरा नहीं उठाना चाहते थे। दलाई लामा की हत्या का मतलब तिब्बती विरोध की हत्या थी। दलाई लामा को तिब्बत छोड़कर भारत की शरण लेनी पड़ी। उन्होंने 17 मार्च को अपना आधिकारिक आवास छोड़ दिया और भारत की ओर रवाना हो गए 31 मार्च को वे भारत के तवांग इलाके में पहुंच गए और भारत से शरण देने की प्रार्थना की।
भारत में दलाईलामा –
भारत में आने के बाद दलाई लामा तात्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिले। इस भेंट के पीछे यह मंशा थी कि भारत चीन पर तिब्बत को स्वायत्तशासी राज्य का दर्जा देने के लिए दबाव डाले। भारत और चीन के रिश्ते भी लगातार बिगड़ते जा रहे थे और नेहरू नहीं चाहते थे कि हालात और खराब हों। भारत को आजाद हुए अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ था और वः अभी तक पाकिस्तान की ओर से दिए गए युद्ध के घावों को सहला रहा था। नेहरू ने दलाईलामा को सत्रह सूत्री समझौते को और बेहतर बनाने की दिशा में ही काम करने की सलाह दे डाली। हालांकि समय नेहरू के इस कदम को गलत साबित करने वाला था क्योंकि चीन के प्रति इस सकारात्मक रवैये के बाद भी भारत को चीन से 1962 में युद्ध करना ही पड़ा।
तिब्बत के आंदोलन के असफल हो जाने के बाद दलाई लामा को भारत में ही निर्वासित जीवन बिताने के लिए मजबूर होना पड़ा और भारत के ही धर्मशाला में उन्होंने तिब्बत के नए समानान्तर सरकार की स्थापना की। भारत के धर्मशाला को फिलहाल लिटिल ल्हासा की संज्ञा दी जाती है। इस सरकार को स्थापित करने में उन 80,000 तिब्बतियों ने अपना सहयोग दिया जो कृषि सुधार कार्यक्रमों की वजह से तिब्बत छोड़कर दलाई लामा के साथ भारत आ गए थे।
दलाई लामा ने एक और उल्लेखनीय काम किया जो उनकी दूरदर्शिता का प्रमाण है। उन्होंने तिब्बत की मूल संस्कृति, भाषा, इतिहास, परम्परा और जीवन शैली की रक्षा के लिए एक शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था की जिसमें निर्वासित तिब्बतियों के बच्चे और आने वाली पीढ़ियां अपनी मिट्टी की खुशबू को पहचान सकें। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर 1959 में द तिब्बतन इंस्टीट्यूट ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट्स की स्थापना की गई। सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हायर तिब्बतन स्टडीज तिब्बतियों के लिए प्राथमिक विश्वविद्यालय और शिक्षा का अहम केंद्र साबित हुआ। इसी क्रम में दलाई लामा ने मात्र एक ही प्रयास में 200 से ज्यादा मठों और शिक्षा केंद्रों की स्थापना कर डाली। इन सबका एक ही उद्देश्य था तिब्बती जीवन शैली और तिब्बती बौद्ध शिक्षाओं की रक्षा करना और उन्हें आगे बढ़ाना।
अंतर्राष्ट्रीय जगत में दलाई लामा की आवाज का असर –
द लाई लामा और तिब्बत पर हो रहे अन्यायों पर पूरी दुनिया की नज़र थी। दलाई लामा को पूरी दुनिया से समर्थन मिल रहा था। कुछ आवाजें दबी हुई थीं और कुछ स्वर मुखर थे। इन्हीं सबके बीच दलाई लामा ने तिब्बत के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया। इस आवाज ने असर दिखाया और संयुक्त राष्ट्र महासभा ने तीन बार 1959, 1961 और 1965 में तिब्बत से संबंधित संकल्प को स्वीकार किया। इन संकल्पों में मांग की गई थी कि चीन तिब्बत में तिब्बतियों के मानवाधिकारों और आत्म सम्मान का सम्मान करेगा।
1963 में दलाई लामा ने एक संविधान जारी किया जिसका आधार वैश्विक मानवाधिकार घोषणा पत्र था। इसी आधार पर निर्वासित तिब्बत सरकार का चयन पूरी तरह लोकतांत्रिक तरीके से किया जाता है। इस सरकार को पूरी दुनिया में फैले हुए तिब्बतियों के सहमति के आधार पर चुना जाता है। निर्वासित तिब्बती सरकार ठीक उसी तरह चुनी जाती है जैसे तिब्बत की नियमित सरकार चुनी जाती है।
1987 में वॉशिगंटन डी.सी. में आयोजित कांग्रेसनल मानव अधिकार बैठक में दलाई लामा ने पांच सूत्री शांति प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव तिब्बत के भविष्य से संबंध रखता है। इस योजना के तिब्बत के संबंध में जोन ऑफ पीस के नाम से जाना गया। यह चीन के साथ संघर्ष की समाप्ति का घोषणा पत्र था। इसमें आधार भूत मानव अधिकार और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के सम्मान की भी बात की गई। साथ ही यह प्रस्ताव इस बात की भी घोषणा करता था कि चीन तिब्बत का इस्तेमाल अपने आणविक हथियारों के परीक्षण, उत्पादन और निस्तारण के लिए नहीं करेगा। कुल मिलाकर इस समझौते में एक सुनहरे तिब्बत की कल्पना की गई थी।
15 जून, 1988 को फ्रांस के स्टेसबोर्ग शहर में भी दलाई लामा ने इसी तरह का प्रस्ताव चीन के सामने रखा , हालांकि इसमें पहले वाले पांच सूत्री प्रस्ताव की वृहद विवेचना की गई थी और एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक और स्वायत्त तिब्बत की बात की गई थी। इसमें चीन के सहयोग के साथ एक स्वतंत्र सरकार की स्थापना और रूपरेखा प्रस्तुत की गई।
1991 में इस प्रस्ताव को तिब्बत की निर्वासित सरकार द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया। अक्टूबर 1991 में दलाई लामा ने तिब्बत लौटने की अपनी मंशा जाहिर की ताकि वे तिब्बत और चीन के बीच आपसी समझ को विकसित कर सकें, लेकिन ठीक इसी समय उन्हें इस बात का डर भी सताने लगा कि तिब्बत एक बार फिर से अशांत हो जाएगा, इसलिए उन्होंने अपनी इस इच्छा को दरकिनार कर दिया। दलाई लामा ने इस बात के साफ़ निर्देश दे दिए कि वे तिब्बत इसी शर्त पर जाएंगे जबकि चीन उनकी वापसी पर किसी तरह की शर्त या नियम न लगाए। उनके इस प्रस्ताव को चीन ने अस्वीकार कर दिया था । (दलाई लामा का जीवन परिचय एवं दलाई लामा का अर्थ)
दलाईलामा का सत्तर वर्ष के युवा के तौर पर अनभुव –
दलाई लामा ने 6 जुलाई, 2005 को अपने जीवन के सत्तर साल पूरे किए थे । इस अवसर पर उनके घर 10,000 बौद्ध श्रद्धालु और लामा एकत्रित हुए। एक महान हस्ती के महान होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है। रशियन ऑर्थोडॉक्स चर्च के पैट्रियार्क एलेक्सीअसने कहा “मैं स्वीकार करता हूं कि रशियन ऑर्थोडॉक्स चर्च अच्छे रिश्तों की बहुत इज्जत करता है। बौद्ध धर्म के अनुयायी के साथ हम उसी रिश्ते को महसूस करते हैं और उसके लगातार विकास की कामना करते हैं।”
ताईवान के राष्ट्रपति चेन शुई बीयान ने दलाई लामा के जन्म अवसर पर आयोजित किए गए रात्रि उत्सव का न्योता स्वीकार करते हुए ताइपेई के चीयांग काई शेक मेमोरियल हॉल में जनसभा को संबोधित करते हुए उनके जीवन को प्रेम और बुद्धिमत्ता की सत्तर वर्षीय यात्रा के रूप में उद्घाटित किया। साथ ही राष्ट्रपति ने दलाई लामा को ताईवान की यात्रा का न्योता भी दे डाला। यह दलाई लामा की तीसरी यात्रा थी । इससे पहले वे 1997 और 2001 में ताईवान की यात्रा कर चुके हैं। यह दलाई लामा के व्यक्तित्व का ही करिश्मा था कि ताईवान जैसे छोटे चीन विरोधी राष्ट्र ने खुले तौर पर उनका समर्थन किया है।
दलाई लामा जोगचेन अभ्यासी हैं और इसी विषय पर वे अपने विचारों और शिक्षाओं का प्रसार करते हैं। उन्होंने अपनी इस विधा का उल्लेख बहुत सारी किताबों और आलेखों में किया है। उन्होंने कालचक्र पर बहुत सारे सार्वजनिक सूत्र भी प्रतिपादित किए हैं। फरवरी 2007 में संयुक्त राज्य अमेरिका के जॉर्जिया स्थित अटलांटा के इमोरी विश्वविद्यालय ने दलाई लामा को प्रेसीडेंशियल डीस्टिंग्विश प्रोफेसर के खिताब से नवाजा। ऐसा पहली बार हो रहा था कि तिब्बत के निर्वासित सरकार के मुखिया ने किसी विश्वविद्यालय के पद को स्वीकार किया हो।
1967 में दलाई लामा ने तिब्बत के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए 46 देशों की यात्रा की। वे विश्व के सभी धार्मिक नेताओं से भी मिले। उन्होंने सबसे पहले 1967 में पोप पॉल-VI से वेटिकन में मुलाकात की। इसके बाद दलाई लामा नेपोप जॉन पाल-॥ व नए पोप बेनेडिक्ट-XVI से भी वर्ष 2006 में मिले। वे तीन बार इजरायल की यात्रा भी कर चुके हैं और साथ ही वे वर्ष 2006 में चीफ रब्बी ऑफ इजरायल से भेंट भी कर चुके हैं। वे केंटबरी के पूर्व आर्कबिशप डॉ. रॉबर्ट रुन्सी से भी मिले हैं। लंदन के एंजेलियन चर्च के मुख्य नेताओं से भी उन्होंने तिब्बत मसले पर बातचीत की है। साथ ही उन्होंने हिंदू, मुस्लिम और सिख धर्मगुरुओं से भी भेंट की और अपनी बात सामने रखी। दलाईलामा ५२ से अधिक देशों का दौरा कर चुके हैं और वह कई प्रमुख देशों के राष्ट्रपतियों, प्रधान मंत्रियों और शासकों से भी मिले हैं । उन्होंने अपने जीवन काल में कई धर्म के प्रमुखों और कई प्रमुख वैज्ञानिकों से मुलाकात भी की ।
दलाई लामा की तिब्बत को लेकर बदली निति –
19 70 के शुरुआती दौर में ही अमेरिका ने तिब्बत के मामले में दलाई लामा का समर्थन करना बंद कर दिया। इस समय तक अमेरिका और चीन के रिश्ते भी सुधरने लगे थे और इन परिस्थितियों में दलाई लामा ने तिब्बत को लेकर अपनी नीतियों में बड़े बदलाव किए। उन्होंने हिंसा को अपने विचारधारा से बिल्कुल निकाल फेंका और शांति पूर्ण तरीकों से तिब्बत को एक स्वायत्त शासी और लोकतांत्रिक राज्य का दर्जा दिलवाने का प्रयास करने लगे। अक्टूबर 1998 में दलाई लामा प्रशासन ने इस बात की पुष्टि की कि संयुक्त राज्य अमेरिका की गुप्तचर एजेंसी सीआईए से उन्हें 1960 में 1.7 मिलियन अमेरिकी डॉलर की मदद मिली थी और अमेरिका के कोलरेडो प्रांत में उन्होंने गुरिल्ला युद्ध में अपनी सेना को प्रशिक्षण भी दिलवाया था।
चीन की सरकार ने एक समय पर दलाई लामा को तिब्बत संघर्ष का नेता मानने से ही इनकार कर दिया है। समय के साथ दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतंत्रता के प्रति अपने सार्वजनिक नजरिए में व्यापक बदलाव किया है। उन्होंने अब एक ऐसे राज्य की संकल्पना पर विचार करना ही छोड़ दिया है, जिसकी अपनी विदेश नीति होगी और अपनी सेना होगी। इसकी जगह उन्होंने एक बीच का रास्ता अख्तियार किया है। वे अब इस बात पर जोर देते थे कि तिब्बत की विदेश नीति और रक्षा दोनों पर चीन का नियंत्रण हो और तिब्बत में पूर्णतः लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार का शासन हो। यह विचार भारत के कश्मीर फार्मूले से काफी समानता रखता था ।
ओलिम्पिक का हरक्युलस और दलाईलामा –
वर्ष 2008 में चीन ग्रीष्म ओलिम्पिक खेलों की मेजबानी कर रहा है ऐसे समय में तिब्बत एक बार फिर चीनी दमन की आग में जल उठा है। दलाई लामा ने 16 मार्च, 2008 को पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। यह हलचल तिब्बत में हो रहे व्यापक चीनी नरसंहार के संबंध में था। उन्होंने चीन पर लीय नरसंहार का आरोप लगाया। चीनी योजना का खुलासा करते हुए प्रशासन ने कहा कि चीन बड़ी मात्रा में हान धर्मावलंबियों और चीनियों को तिब्बत में बसा रहा है और तिब्बत के मूल निवासी अपने ही क्षेत्र में अल्पसंख्यक हो गए हैं। उन्होंने इस हिंसा के लिए वेन जिआबाओ और उसका सरकार को जिम्मेदार ठहराया। तिब्बती लोगों के मानवाधिकारों को सैनिक बूटों के नीचे बेरहमी से कुचला जा रहा है। बढ़ते हुए तनाव और हिंसा के बीच दलाई लामा ने कहा कि वे चीन के प्रति हो रही हिंसा को रोकने के मामले में स्वयं को शक्तिहीन पाते हैं।
दलाई लामा ने चीन के उन सभी आरोपों को नकार दिया, जिसमें इस हिंसा के लिए उन्हें दोषी ठहराया गया था। चीन ने ओलिम्पिक मशाल विश्वयात्रा पर निकाली तो दलाई लामा भी एक यात्रा पर निकल पड़े। 10 अप्रैल, 2008 को वे जापान पहुंचे। इसके बाद वे अमेरिका की यात्रा पर निकल पड़े। पूरी दुनिया में तिब्बत में हो रहे अत्याचार की वजह से चीन को प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। बीजिंग ने दलाई लामा को इस अशांति के लिए जिम्मेदार ठहराया। दलाई लामा ने इसके विपरीत अपनी महानता का प्रदर्शन करते हुए तिब्बतियों से शांति बनाए रखने की अपील की। अपील ने असर भी किया और हिंसा की घटनाओं में काफी हद तक कमी भी आई।
दलाई लामा ने स्पष्ट कर दिया कि वे ग्रीष्मकालीन ओलिम्पिक खेलों के बहिष्कार के पक्ष में कतई नहीं हैं। दलाई लामा की अक्सर आलोचना होती रही है कि उन्होंने तिब्बती राज व्यवस्था के जिस आदर्शवाद को स्थापित करने की कोशिश की है, वास्तव में वह उतनी ज्यादा आदर्शवादी कभी नहीं रही। तिब्बती कानून व्यवस्था में भी अपराध के लिए मृत्यु दण्ड जैसे जघन्य कानूनों की व्यवस्था थी। हालांकि दलाई लामा ने दलाई लामा फाउंडेशन की स्थापना की ताकि शांति और आदर्श का संदेश पूरी दुनिया में फैलाया जा सके। दलाई लामा प्रत्यक्ष रूप से इस फाउंडेशन से नहीं जुड़े हुए, लेकिन समय-समय पर वे इस संस्था को निर्देश देते रहते हैं।
दलाई लामा को नोबेल शांति पुरस्कार (तिब्बती गांधी बनाम भारतीय लामा) –
दलाईलामा ने तिब्बत के मामले पर पश्चिमी देशों का समर्थन पाने में सफलता प्राप्त की । हॉलीवुड की बहुत सारी नामचीन हस्तियों ने दलाईलामा के समर्थन में खुले तौर पर अपनी आवाज उठाई थी , इनमें रिचर्ड गेर और स्टीवन सीगल प्रमुख हैं। 10 दिसम्बर, 1989 को पूरी दुनिया ने दलाई लामा के संघर्ष को मान्यता प्रदान की और उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया। यह पुरस्कार दिया गया क्योंकि दलाई लामा ने तिब्बत मसले को हल करने के लिए शांति और अहिंसा का रास्ता घोर हिंसकों के विरोध में अपनाया था। यह पुरस्कार ओस्लो में लेते हुए पूरी दुनिया ने उन्हें देखा। यह इस बात का प्रमाण था कि यह संत इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी कितना अटल है। नोबेल समिति ने कहा “यह पुरस्कार महात्मा गांधी की याद और उन्हें श्रद्धाजंलि है।” नोबेल समिति का यह व्यक्तव्य एक महान संत का दूसरे महान संत के साथ संबंध दर्शाता है। (दलाई लामा का जीवन परिचय एवं दलाई लामा का अर्थ)
दलाईलामा और मार्क्सवाद –
दलाई लामा मार्क्स के सिद्धांतों में विश्वास रखते हैं। मार्क्सवाद के बारे में दलाई लामा अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि विश्व के तमाम आर्थिक सिद्धांतों में मार्क्सवाद ही आदर्शों पर आधारित है, जबकि पूंजीवाद का सिर्फ एक ही सिद्धांत है “ज्यादा से ज्यादा लाभ और लाभ कमाने की क्षमता। मार्क्सवाद धन का बंटवारा समानता के आधार पर करता है। साथ ही वह उत्पादन के साधनों पर भी बराबर नजर रखता है। यह कामगार वर्ग के आदर्श और भाग्य से जुड़ा हुआ विचार है और सही मायनों में यही सबसे बड़ा वर्ग है। साथ ही यह उन लोगों के साथ भी न्याय करना चाहता है जिसे वास्तव में विकास करने की जरूरत है और जो पिछड़ा हुआ है। मार्क्सवाद उस धनिक वर्ग का विरोध करता है, जो गरीबों का शोषण करने में यकीन रखता है। इन्हीं गुणों की वजह से यह व्यवस्था मुझे रोमांचित करती है और सही जान पड़ती है। मैंने हाल में एक अखबार में पढ़ा कि पोप भी मार्क्सवाद के सकारात्मक तथ्यों से प्रभावित हैं। मार्क्सवाद की असफलता के रूप में मैं कभी भी चीन, रूस या वियतनाम को बतौर उदाहरण नहीं लेता। ये सब मार्क्सवाद से ज्यादा संकीर्ण राष्ट्रवाद के उदाहरण हैं ।उन्होंने मजदूर वर्ग से ज्यादा स्वहित साधे हैं।”
वे आगे कहते हैं कि “मार्क्सवाद की सबसे बड़ी खामी यह है कि वह पूंजीपतियों को मिटा डालने के विचार पर जरूरत से ज्यादा जोर देता है, यही पर आकर उसमें से नकरात्मकता बाहर आनी शुरू हो जाती है। मूल रूप से यह विचार वंचित वर्ग को उसके अधिकार दिलाने और सबसे बड़े वर्ग को शोषण से मुक्त कराने पर आधारित है, लेकिन जब इसे लागू किया जाने लगता है तो इसकी दिशा बदल जाती है और सारी ऊर्जा विनाशकारी कार्यों की ओर मुड़ जाती है। एक बार जब क्रांति खत्म हो गई और शासक वर्ग का खात्मा हो गया तो लोगों के पास करने के लिए कुछ बचता ही नहीं है। मेरा सोचना है कि यह सिर्फ मानवीय बंधनों और करुणा की कमी के कारण है। जब मैं अपने आप को मार्क्सवाद से जोड़कर देखता हूं तो स्वयं को आधा मार्क्सवादी और आधा बौद्धवादी पाता हूं।”
दलाईलामा को अन्य अंतरास्ट्रीय सम्मान –
वर्ष 2005 और वर्ष 2008 में टाइम मैगजीन ने दलाई लामा को विश्व के सौ सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया। 22 जून, 2006 को कनाडा की संसद में दलाई लामा को कनाडा की नागरिकता देने के पक्ष में अभूतपूर्व मतदान हुआ। इसके बाद दलाई लामा को कनाडा की मानद नागरिकता से सम्मानित किया गया। सितम्बर, 2006 में संयुक्त राज्य अमेरिका की कांग्रेस में भी दलाई लामा को कांग्रेसनल अवॉर्ड देने के लिए भारी मतदान हुआ और उन्हें अमेरिकी कांग्रेसनल गोल्ड मेडल प्रदान किया गया। चीन की सरकार ने अमेरिका के इस फैसले पर अपनी आपत्ति और गुस्सा दर्ज करवाया और इसे अपने देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप माना।
वर्ष 2007 में दलाई लामा ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी गए और वहां की सरकार का भी समर्थन हासिल किया। इसके बाद वे जर्मनी पहुंचे और जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल से मिले। मई, 2007 में दलाई लामा कार्यालय के वरिष्ठ प्रवक्ता छीमी रिगजिंग ने घोषणा की कि दलाई लामा अपनी राजनीतिक जिम्मेदारियों को कम करना चाहते हैं और उनकी मंशा है कि वे अवकाश ले लें। राजनीतिक नेतृत्व समय के साथ किसी योग्य व्यक्ति को सौंप दिया जाएगा, लेकिन दलाई लामा तिब्बती लोगों के आध्यात्मिक नेता बने रहेंगे। और साथ ही इस बात की भी घोषणा की गई कि आगे से दलाई लामा के पद पर कोई चयन नहीं होगा। हालांकि चीन की सरकार ने अगले दलाई लामा के चयन संबंधी सभी काम अपने नियंत्रण में लेने की घोषणा की है, लेकिन यह बात पूरी दुनिया समझती है कि कोई भी सरकार धर्म गुरुओं और महान आत्माओं का निर्माण नहीं कर सकती। यह पूरी तरह भावनाओं का मामला है और लोगों की भावनाओं पर बंदूक से शासन नहीं किया जाता है। उस पर प्रेम का शासन है और चौदहवें दलाई लामा तो प्रेम की सरिता हैं।
दलाई लामा ने अपने एक भाषण के दौरान कहा था “मैं एक साधारण बौद्ध अनुयायी हूं न इससे कुछ ज्यादा और न इससे कुछ कम।” दलाई लामा अपनी सरलता के साथ महान हैं। इस बात को चीन के अलावा पूरी दुनिया स्वीकार करती है। उनके जीवन संग्राम पर संत शांतिदेव की एक तिब्बती कविता खरी उतरती है “उसके लिए जो ब्रह्मांड के समान विस्तृत है और इतना दीर्घ जब तक जीवन शेष है, तब तक मैं अटल रह पाऊं। जब तक इस दुनिया से पाप और दुख को तितर-बितर न कर दूं।”
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