हम जीवन भर दूसरों के सत्य और अपने असत्य खोजने में लगे रहते हैं इस लेख में हम जानते हैं कि सत्य को कैसे स्वीकार करें और सत्य क्या है झूठ क्या है ?
अपना अपना सत्य
सत्य के बारे में कहा गया है कि यह न तुम्हारा होता है, न मेरा। सत्य वही है जो सभी का है। लेकिन ऐसा सत्य भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र आदि पदार्थ विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में ही मिलता है। जैसे कवियों के लिए चंद्रमा का अलग-अलग अर्थ होता है। किसी को उसमें अपनी प्रियतमा का चेहरा दिखाई पड़ता है, तो किसी को वह झूलती हुई रोटी की तरह लगता है। मुक्तिबोध कह गए है कि चांद का मुंह टेढ़ा है। एक उपन्यासकार कहता है, मुझे चांद चाहिए । जाहिर है, कवि और लेखक चंद्रमा के बारे में नहीं बता रहे हैं, वे अपने-अपने प्रयोजन के लिए चंद्रमा का उपयोग कर रहे हैं। इसीलिए सभी की जेब में अपना-अपना चंद्रमा है। लेकिन सभी वैज्ञानिकों के लिए चांद का एक ही अर्थ है । वह एक ऐसा आकाशीय पिंड है, जो धरती का चक्कर लगाता रहता है, जिसमें अपनी रोशनी नहीं है और जो शीघ्र ही अमीरतम सैलानियों के लिए पर्यटन की ताजा जगह बनने जा रहा है। इस चांद की विशेषताओं के बारे में वैज्ञानिकों के बीच कोई मतांतर नहीं है। जब से वैज्ञानिकों ने चांद का यह रहस्य खोल दिया है कि वहां बड़े-बड़े गड्ढे हैं, तब से यह आशंका पैदा हो गई है कि किसी इंटेलिजेंट लड़की को चांद या चांद का टुकड़ा कह दिया जाए तो वह बुरा मान सकती है। लड़की अगर साहित्यिक रुचि की हुई तो पलटकर पूछ सकती है, क्या मेरा मुंह टेढ़ा है ? सत्य को कैसे स्वीकार करें
वाल्टेयर का सिंद्दांत
पदार्थ जगत को यदि छोड़ दिया जाए-हालांकि यहां भी आए दिन मतभेद पैदा होते रहते हैं, तो सत्य हमेशा सांसत में फंसा मिलता है। इसकी पहली अनुभूति मुझे तब हुई थी, जब मैंने वाल्टेयर के बारे में यह किस्सा पढ़ा। कहते हैं, एक शख्स वाल्टेयर से मिलने आया। उस समय वह कई लोगों से घिरे बैठे थे। वाल्टेयर उस शख्स की ओर मुखातिब हुए तो वह बोला- मैं आपसे जरा एकांत में बात करना चाहता हूं, जहां सिर्फ दो ही आदमी हों- आप और मैं। वाल्टेयर ने जवाब दिया- यह तो असंभव है। जहां आप और मैं सिर्फ दो ही जने होंगे, वहां भी कम से कम छह व्यक्तियों की भीड़ होगी। आगंतुक द्वारा यह पूछने पर कि कैसे, दार्शनिक ने जवाब दिया- देखो भाई, वाल्टेयर के रूप में वहां तीन आदमी होंगे । एक वाल्टेयर वह, जिसकी एक खास छवि आपके मन में है। दूसरा वाल्टेयर वह, जिसकी एक खास छवि मेरे अपने मन में है। तीसरा वाल्टेयर वह, जो वाल्टेयर वास्तव में है । जिस तरह वहां तीन वाल्टेयर होंगे, वैसे ही आपकी भी तीन शक्लें होंगी। इस तरह, वह एकांत कहां मिल सकेगा, जहां सिर्फ दो ही आदमी हों ? सत्य को कैसे स्वीकार करें
सत्य की परिभाषा
क्या इसीलिए सत्य को परिभाषित करने की सभी कोशिशें बेकार साबित हुई हैं? अगर किसी ने सत्य को परिभाषा में बांधने का प्रयत्न किया, तो उसका सत्य जल्द ही आउट ऑफ डेट हो गया एक समय में दुनिया के करोड़ों लोग मानते थे कि स्वर्ग और नर्क वास्तव में होते हैं। जिनकी कल्पना शक्ति तीव्र थी, ऐसे धर्मपरायण लोगों ने विस्तार से बताया है कि स्वर्ग में क्या-क्या फैसिलिटी मिलती है और नर्क में कितना कष्ट होता है। जाहिर है, वे एक काल्पनिक प्रलोभन और एक काल्पनिक डर के माध्यम से धर्म का प्रचार करना चाहते थे, क्योंकि वे न तो स्वर्ग में रहकर आए थे और न नर्क से गुजरे थे। आज कुछ भोले-भाले लोगों को छोड़कर न किसी को स्वर्ग का लालच दिया जा सकता है, न नर्क का डर दिखाया जा सकता है। सभी लोग वास्तविकता को जान गए हैं और निर्भय होकर धर्म-विरोधी आचरण करते हैं। सत्य को कैसे स्वीकार करें
कहा जा सकता है कि दुनिया में लंबे समय तक सत्य के नाम पर कल्पनाओं का राज था। दरअसल, हम सभी को सत्य के बजाय कल्पना प्रिय है। इसलिए आज भी यह दावा नहीं किया जा सकता कि हम सत्य में ही जीते हैं, कल्पना में नहीं। कोई टीवी पर अमिताभ बच्चन को एक खास कंपनी की शर्ट में देखता है, तो वह उस कंपनी की शर्ट पहनकर सोचता है कि वह भी अमिताभ बच्चन हो गया। लेकिन आस पास देखने पर वह पाता है कि उसकी तरह के दर्जनों अमिताभ बाजार में घूम रहे हैं यही हाल उन सुंदरियों का है, जो अपने को माधुरी दीक्षित या ऐश्वर्या राय बनाने के लिए राष्ट्रीय आय का पता नहीं कितना बड़ा हिस्सा खर्च कर देती हैं और अंत में पाती हैं कि वे वे ही रह गईं।
इस सचाई का बहुत मार्मिक उद्घाटन –‘मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं’, नाम की फिल्म में हुआ था। बताते हैं कि सुंदरियां ऐसी फिल्में नहीं देखना चाहतीं, जिनसे उनका कोई भ्रम टूट जाए। इसलिए उस फिल्म के बाद भी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। हालांकि इससे भी कोई फर्क नहीं होगा, फिर भी किसी को चाहिए कि वह ‘मैं अमिताभ बच्चन बनना चाहता हूं’, नाम की या इस ढंग की कोई फिल्म बनाएं। जब तक पुरुष भ्रम में रहेंगे, तब तक स्त्रियां यह कोशिश करती रहेंगी कि उस भ्रम को हृष्ट-पुष्ट बनाए रखा जाए। यही बात दूसरी तरफ से भी लागू होती है। यानी जब तक स्त्रियां भ्रम में जीना पसंद करेंगी, तब तक पुरुष उन्हें बेवकूफ बनाते रहेंगे। भ्रम में जीना वंचना को आमंत्रित करना है। वैसे, सवाल यह भी है कि जब स्त्री और पुरुष एक-दूसरे को बेवकूफ बनाना छोड़ देंगे यानी सभी सत्य के साथ जीना स्वीकार कर लेंगे, तो वे एक-दूसरे के साथ करेंगे क्या?
इन उदाहरणों से समझा जा सकता है कि जीवन में, जो पदार्थ विज्ञान के ठोस नियमों से परिचालित नहीं होता, कितना सत्य होता है और कितना असत्य । इसीलिए गांधी गिरी के पहले उस्ताद मोहनदास करमचंद ने अपनी आत्मकथा को ‘सत्य के प्रयोग’ जैसा सज्जन नाम दिया। उन्होंने बार-बार यह कहा कि मैं सत्य को जानता नहीं हूं, उसे खोज रहा हूं। वे यह भी मानते थे कि जब तक हम त्वचा की सीमा में हैं यानी मनुष्य हैं, तब तक सत्य को जानना हमारे लिए असंभव है, क्योंकि सत्य असीम है और हम ससीम। सत्य को कैसे स्वीकार करें
सत्य और असत्य
हम आदमियों की मुश्किल यह है कि हम सत्य और असत्य, दोनों के साथ जीना चाहते हैं। हम पड़ोसियों के बारे में तमाम तरह के सत्य खोजते रहते हैं और अपने बारे में तरह-तरह के असत्यों की सृष्टि करते रहते हैं। जाहिर है, हमारे पड़ोसी भी यही करते हैं। इसी समतुल्यता के कारण हमारे बीच दुर्घटनाएं होती रहती हैं, लेकिन दुर्घटना हो सकती है, इस डर से क्या कोई मोटरकार चलाना बंद कर देता है? मनुष्य न केवल वर्तमान में जीने के लिए अभिशप्त है, बल्कि वह वर्तमान की अपने द्वारा बनाई गई तस्वीर के साथ जीने के लिए अभिशप्त है चरम सत्य यही है। लेकिन सुख भी इसी में है। विश्वास न हो, तो सुखी व्यक्तियों की वास्तविक जिंदगी के बारे में पता लगाने के लिए किराए के कुछ अच्छे जासूस लगा दीजिए।
सत्य और असत्य के बीच इतना बड़ा स्पेस होता है कि आप अपना सत्य खुद तय कर सकते हैं। इस बारे में एक लतीफा सुनिए। एक आदमी मनोचिकित्सक के पास गया और कहा कि मेरा इलाज कीजिए, नहीं तो मेरी जिंदगी तबाह हो जाएगी। मनोचिकित्सक ने पूछा- आपको क्या तकलीफ है? आगंतुक ने कहा- मुझे बहुत तगड़ा इनफीरियरिटी कॉम्पलेक्स है। मनोचिकित्सक बहुत देर तक उससे उसके बारे में तमाम जानकारियां लेता रहा। फिर बोला- मैंने जांच लिया है। आपको वास्तव में कोई कॉम्पलेक्स नहीं है। आप इनफीरियर हैं ही। अगर आप इस सचाई को स्वीकार कर लें, तो आपकी सभी परेशानियां खत्म हो जाएंगी और आप बेहतर जीवन बिता सकेंगे। सत्य को कैसे स्वीकार करें
आप क्या सोचते हैं, उस आदमी ने मनोचिकित्सक की सलाह मान ली होगी ? मूर्ख अगर यह स्वीकार करने लगें कि वे मूर्ख हैं और बुद्धिमान अगर यह स्वीकार करने लगें कि एकमात्र बुद्धिमान वे ही नहीं हैं, तो हम कितनी नाहक वेदनाओं से बच जाएं। यह और बात है कि तब अनेक नई वेदनाएं गले पड़ जाएंगी। मसलन बड़ा मूर्ख इस फिक्र से परेशान रहेगा कि अनेक लोग मुझसे कम मूर्ख हैं। इसी तरह कम बुद्धिमान ज्यादा बुद्धिमान से रश्क करने लगेगा। सत्य के साथ यही मुश्किल है। यह सरल आदमी के लिए जीना आसान बनाता है और कुटिल आदमी के लिए जीना मुश्किल । सत्य को स्वीकार करना अपनी वास्तविकता को सहज मन से स्वीकार करना है। चूहा अपनी वास्तविकता को जानता है। बिल्ली भी अपनी वास्तविकता को जानती है। इसलिए उन्हें न तो इनफीरियरेटी कॉम्पलेक्स होता है और न ही सुपीरिएरिटी कॉम्पलेक्स। वे अपनी वास्तविकताओं के साथ जीते हैं और सुखी या दुखी, जैसे भी रहते होंगे, रहते हैं। जो चूहा इस भ्रम का शिकार हो गया कि वह सामान्य चूहा नहीं, सुपर- चूहा है, वे बिल्ली के आहार – अन्वेषण के काम को आसान बनाता है। जिस बिल्ली ने अपने को अलौकिक शक्ति संपन्न देवी मान लिया, वह कुत्तों का काम आसान बनाती है ।।
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