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महात्मा बुध्द का सत्य का मार्ग

महात्मा बुध्द का सत्य का मार्ग – बुध्द की नजरों में सत्य

हात्मा बुद्ध कहते हैं, “सत्य का आग्रह भूलकर नहीं करना चाहिए। सत्य तो अनाग्रह से पैदा होता है।” वे आगे कहते हैं कि “असत्य को पकड़ने की हमारी आदत इतनी जड़ है कि अगर हम कभी एक असत्य को छोड़ते भी हैं तो तत्क्षण हम दूसरे को पकड़ लेते हैं। या अगर कभी भूल-चूक से सत्य भी हमारे हाथ में आ जाए, तो हमारे हाथ में आने के कारण असत्य हो जाता है असली सिक्के आकर हमारे हाथों में झूठे हो जाते हैं।” इस लेख के माध्यम से जानते हैं कि बुध्द की नजरों में सत्य  और महात्मा बुध्द का सत्य का मार्ग कौन सा है।

महात्मा बुध्द का सत्य का आग्रह

महात्मा बुध्द के सत्य को जानने के लिए हम एक कथा का वर्णन करते हैं जो इस प्रकार है :-

भगवान बुद्ध का प्रभाव प्रतिदिन बढ़ता जाता था और जो वस्तुतः धर्मानुरागी थे वे अतीव रूप से आनंदित थे। उनके हृदय – कुसुम भी भगवान की किरणों में खुल जाते थे। उनके मन पाखी भगवान के साथ अनंत की उड़ान के लिए तत्पर हो रहे थे, लेकिन ऐसे लोग तो दुर्भाग्य से थोड़े ही थे। बहुत तो ऐसे थे, जिनके प्राणों में भगवान की उपस्थिति भाले सी चुभ रही थी। भगवान का बढ़ता प्रभाव उन्हें क्रोध के जहर से भर रहा था। भगवान के वचन उन्हें विध्वंसक मालूम होते थे। उन्हें लगता था कि यह गौतम तो धर्म के नाश पर उतारू है। और उनकी बात में थोड़ी सच्चाई भी थी। क्योंकि गौतम बुद्ध की शिक्षाएं, जिसे वे मतांध धर्म समझते थे, उससे निश्चय ही विरोध में थीं। गौतम बुध्द किसी और ही धर्म की बात कर रहे थे। गौतम शुद्ध धर्म की बात कर रहे थे। गौतम परंपरावादी नहीं थे। न संप्रदायवादी थे, न शास्त्रों के पूजक थे, न रूढ़ियों अंधविश्वासों के। गौतम का धर्म अतीत पर निर्भर ही नहीं था। गौतम का धर्म उधार नहीं था, स्वानुभव पर आधारित था। गौतम अपने शास्त्र स्वयं थे। गौतम का धर्म स्थिति-स्थापक नहीं था, आमूल क्रांतिकारी था। धर्म हो ही केवल क्रांतिकारी सकता है। गौतम की निष्ठा समाज में नहीं, व्यक्ति में थी। और गौतम की आधारशिला मनुष्य था, आकाश का कोई परमात्मा या देवी-देवता नहीं। गौतम ने मनुष्य की और मनुष्य के द्वारा चैतन्य की परम प्रतिष्ठा की थी।

 इस सबसे रूढ़िवादी, दकियानूस, धर्म के नाम पर भांतिभांति के शोषण में संलग्न प्रकार प्रकार के पंडित पुरोहितों और तथाकथित धर्मगुरुओं में किसी भी भांति गौतम को बदनाम करने की होड़ लगी थी। उन्होंने एक सुंदरी परिव्राजिका को विशाल धनराशि का लोभ देकर राजी कर लिया कि वह बुद्ध की अकीर्ति फैलाए। वह सुंदरी उनके साथ षड्यंत्र में संलग्न हो गई। वह नित्य संध्या जेतवन की ओर जाती थी और परिव्राजिकाओं के समूह में रहकर प्रातः नगर में प्रवेश करती थी। और जब श्रावस्ती वासी पूछते, कहां से आ रही है? तब वह कहती थी, रातभर श्रमण गौतम को रति में रमण कराकर जेतवन से आ रही हूं। ऐसे भगवान की बदनामी फैलने लगी, लेकिन भगवान चुप रहे सो चुप रहे । भिक्षु आआकर सब उनसे कहते, लेकिन वे हंसते और चुप रहते। धीरे-धीरे यह एक ही बात सारे नगर की चर्चा का विषय बन गई। लोग रस ले-लेकर और बात को बढ़ा-बढ़ाकर फैलाने लगे। और भगवान के पास आने वालों की संख्या रोज-रोज कम होने लगी। हजारों आते थे, फिर सैकड़ों रह गए, और फिर अंगुलियों पर गिने जा सकें इतने ही लोग बचे। और भगवान हंसते और कहते- देखो, सुंदरी परिव्राजिका का अपूर्व कार्य, कचरा कचरा जल गया, सोना-सोना बचा।                            महात्मा बुध्द का सत्य का मार्ग

भगवान की शांति को अचल देख उन तथाकथित धर्मगुरुओं ने गुंडों को रुपए देकर सुंदरी को मरवा डाला और फूलों के एक ढेर में जेतवन में ही  उसकी लाश छिपा दी। भगवान की शांति से सुंदरी अपने कुकृत्य पर धीरे-धीरे पछताने लगी थी। भगवान ने उसे एक शब्द भी नहीं कहा था और न ही उसके आने-जाने पर कोई रोक ही लगाई थी। उसकी अंतरात्मा ही उसे काटने लगी थी। इस कारण उसकी हत्या आवश्यक हो गई थी। उसके द्वारा सत्य की घोषणा का डर पैदा हो गया था। फिर यह हत्या षड्यंत्र को और भी गहरा बनाने का उपाय भी थी। सुंदरी की हत्या के बाद उन धर्मगुरुओं ने नगर में खबर फैला दी कि मालूम होता है कि गौतम ने अपने पाप के भय से सुंदरी को मरवा डाला है। उन्होंने राजा से भी जाकर कहा कि महाराज, हम सुंदरी परिव्राजिका को नहीं देख रहे, दाल में कुछ काला है। वह श्रमण गौतम के पास जेतवन में ही रातें गुजारा करती थी। राजा ने जेत वन में सुंदरी की तलाश के लिए सिपाही भेजे, वहां पाई गई उसकी लाश। धर्मगुरु ने राजा से कहा- महाराज, देखिए यह महापाप। अपने आप को छिपाने के लिए गौतम इस महापाप को करने से भी न चूका। और वे धर्मगुरु नगर की गली-गली में घूमकर गौतम की निंदा में संलग्न हो गए। भगवान भिक्षुओं का भिक्षाटन भी कठिन हो गया। भगवान के पास तो अब केवल दुस्साहसी ही जा सकते थे। और भगवान ने इस सब पर क्या टिप्पणी की !

भगवान ने कहा- भिक्षुओं, असत्य असत्य है, तुम चिंता न करो। सत्य स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ है। फिर सत्य के स्वयं को प्रकट करने के अपने ही मार्ग हैं, अनूठे मार्ग हैं। तुम बस शांति रखो, धैर्य रखो। ध्यान करो और सब सहो। यह सहना साधना है। श्रद्धा न खोओ, श्रद्धा को इस अग्नि से भी गुजरने दो। यह अपूर्व अवसर है, ऐसे अवसरों पर ही तो कसौटी होती है। श्रद्धा और निखरकर प्रगट होगी। सत्य सदा ही जीतता है।                                                     महात्मा बुध्द का सत्य का मार्ग

और फिर ऐसा ही हुआ। सप्ताह के पूरे होते-होते ही जिन गुंडों ने सुंदरी को मारा था वे मधुशाला में शराब की मस्ती में सब कुछ कह गए। सत्य ने ऐसे अपने को प्रकट कर ही दिया। तथाकथित धर्मगुरु अति निंदित हुए और भगवान की कीर्ति और हजार गुना हो गई, लेकिन स्मरण रहे कि भगवान कुछ न बोले सो कुछ न बोले। सत्य को स्वयं ही बोलने दिया। अंत में उन्होंने अपने भिक्षुओं से इतना ही कहा कि असत्य से सदा सावधान रहना। उसके साथ न कभी जीत हुई है, न कभी हो सकती है। एस धम्मो सनंतनो। हम असत्य के इतने पुराने पूजक हैं कि एक असत्य को छोड़ते हैं कि हम दूसरे को पकड़ लेते हैं। इधर छूटा नहीं कि उधर हमने पकड़ा नहीं। असत्य को पकड़ने की हमारी आदत इतनी जड़ है कि अगर हम कभी एक असत्य को छोड़ते भी हैं तो तत्क्षण हम दूसरे को पकड़ लेते हैं। या अगर कभी भूल-चूक से सत्य भी हमारे हाथ में आ जाए, तो हमारे हाथ में आने के कारण असत्य हो जाता है। हमारे पात्र इतने जहरीले हो गए हैं कि अमृत भी अगर हमारे पात्र में भरता है तो जहरीला हो जाता है। हमारे हाथों में चमत्कार हो गया है। असली सिक्के आकर हमारे हाथों में झूठे हो जाते हैं।

बुद्ध ने प्रार्थना बात ही नहीं की। बुद्ध ने पूजा की बात ही नहीं की। बुद्ध ने तो सिर्फ एक सीधा सा सूत्र दिया ध्यान। ध्यान का अर्थ है- नींद को तोड़ो, सपने को तोड़ो और जागो। जैसे-जैसे जागने लगोगे, वैसे-वैसे परमात्म-भाव तुम्हारा पैदा होने लगेगा। जिस दिन तुम पूरे जाग गए, उस दिन तुम परमात्मा हो गए। मनुष्य को ऐसी महिमा किसी ने भी न दी थी। साबार ऊपर मानुस सत्य ताहार ऊपर नाहीं । इन सबसे स्वभावतः दकियानूस, रूढ़िवादी, धर्म के नाम पर भांति-भांति का शोषण करने वाले लोग बहुत पीड़ित हो गए थे। उन्हें कुछ सूझता भी न था, कैसे इस गौतम से विवाद करें। विवाद वे करने में समर्थ भी नहीं थे। गौतम कोई पंडित होते तो विवाद आसान हो जाता। गौतम् के सामने आकर उन पंडितों के विवाद और तर्क बड़े-छोटे और ओछे मालूम होने लगते थे। उनमें कोई बल न था। वे तर्क नपुंसक थे। तो पीछे से ही छुरा मारा जा सकता था। उपाय उन्होंने यह खोजा एक सुंदरी परिव्राजिका को विशाल धनराशि का लोभ देकर राजी कर लिया कि बुद्ध की अकीर्ति फैलाए।

अब यह सुंदरी परिव्राजिका बुद्ध की शिष्या थी। शिष्य होकर भी कोई इतना दूर हो सकता है, इसे याद रखना। शिष्य होकर भी कोई अपने गुरु को बेच सकता है, इसे याद रखना। क्राइस्ट को भी जिसने बेचा-जुदास-वह क्राइस्ट का शिष्य था। बारह शिष्यों में एक। और बेचा बड़े सस्ते में- तीस रुपए में। तीस चांदी के टुकड़ों में इस सुंदरी परिव्राजिका को लोभ दिया होगा धन का, पद का, प्रतिष्ठा का, लोभ में आ गई होगी। जो लोभ में आ जाए, वह संसारी है, चाहे वह संन्यासी ही क्यों न हो गया हो। परिव्राजिका थी, संन्यास ले लिया था, लेकिन संन्यास भी लोभ के कारण ही लिया होगा। फिर लोभ के कारण ही डोल गई।

वह षडयंत्र में संलग्न हो गई। नित्य संध्या जेतवन जाती, परिव्राजिकाओं के साथ समूह में रहकर प्रातः नगर में प्रवेश करती। और जब श्रावस्ती-वासी पूछते- और ये श्रावस्ती-वासी कोई और न होंगे, वही पंडित- पुरोहित ! नहीं तो कौन किससे पूछता है! वे ही पूछते होंगे रास्तों पर खड़े हो-होकर कहां से आ रही हो? तब वह कहती, रातभर श्रमण गौतम को रति में रमण कराकर जेतवन से आ रही हूं। ऐसे भगवान की बदनामी फैलने लगी। लेकिन भगवान चुप रहे सो चुप रहे। सत्य को इतना समादर शायद ही किसी ने दिया हो।

फर्क समझना। महात्मा गांधी ने एक शब्द इस देश में प्रचलित करवा दिया : सत्याग्रह कि सत्य का आग्रह करना चाहिए। यह कथा इसके बिल्कुल विपरीत है। बुद्ध कहते हैं, सत्य का आग्रह भूलकर नहीं करना चाहिए। सत्य तो अनाग्रह से पैदा होता है। सत्य कहने से थोड़े ही होता है। असल में आग्रह सभी असत्य के होते हैं। जब हम किसी चीज को बहुत चेष्टा से सत्य सिद्ध करने की दिशा में संलग्न हो जाते हैं, तो हम इतना ही कहते हैं कि हमें डर है कि अगर हमने इसको बहुत प्रबल प्रमाण न जुटाए, तो यह कहीं बात हार न जाए। सत्य में तो कोई भय का कारण ही नहीं है। इसलिए सत्य का कोई आग्रह नहीं होता।                                      महात्मा बुध्द का सत्य का मार्ग

सत्य तो इतना बलशाली है कि उसके लिए किसी सुरक्षा का कोई आयोजन करने की जरूरत नहीं है। तो बुद्ध चुप रहे सो चुप रहे। यह भी न कहते कि झूठ बोलती है यह सुंदरी। यह भी न कहते कि यह भी खूब षड्यंत्र चल रहा है, कुछ भी न कहते। न सुंदरी के खिलाफ एक शब्द बोले । सुंदरी को सुंदरी पर छोड़ दिया। यह सत्य का अनाग्रह है। सत्य पर इतना भरोसा है, सत्य पर ऐसी अटूट श्रद्धा है कि सत्य अगर है, तो जीतेगा ही। आज नहीं कल देर-सबेर जीतेगा ही। जो आदमी ज़िंदगी भर झूठ बोल रहा है, उसके हृदय में वह गांठ पड़ जाएगी। फिर तो वह सच भी बोलना चाहेगा तो न बोल सकेगा। गांठ मजबूत हो जाएगी।  तुम अपना नर्क पैदा कर रहे हो। तुम अपना स्वर्ग भी पैदा कर सकते हो। तो बुद्ध ने कहा, जो असत्यवादी है, वह दुख में पड़ जाता है ।।

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