सारा शहर उन पोस्टरों से पटा हुआ था, जिनमें यह घोषणा की गई थी कि सत्य विजयी हुआ। पोस्टरों पर एक कोने में लिखा था, ‘सत्यमेव जयते ‘ दूसरे कोने पर लिखा था ‘सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं।
इन वाक्यों से सटे हुए फोटो थे प्रादेशिक और राष्ट्रीय नेताओं के पोस्टरों के बीचों-बीच सत्य की तस्वीर थी। तस्वीर में सत्य अभिवादन मुद्रा में हाथ जोड़ खिल खिला रहा था। सत्य बड़ा ही प्रभावशाली था। बड़ी-बड़ी आंखें। पकौड़े सी नाक के नीचे बड़ी-बड़ी तलवार सी मूंछें। सत्य आभार प्रकट कर रहा था राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेतृत्व के प्रति, आम जनता के प्रति और अपने सहयोगियों के प्रति। पोस्टर में सत्य के सहयोगियों की मुंडियों की फसल लहलहा रही थी। सबसे नीचे उन संस्थाओं और संगठनों के नामों की कतार थी, जिन्होंने सत्य को संघर्ष में सहयोग दिया था।
अखबार भी सत्य की विजय पर बधाई संदेश के विज्ञापनों से पटे पडे थे। विज्ञापनों में सत्य को लोकप्रिय, जुझारू, प्रगतिशील, लोकप्रिय, गरीबों के मसीहा और जन-जन के लाडले आदि विशेषणों से लाद दिया गया था। विज्ञापन में दो तस्वीरें थीं एक सत्य की और दूसरी बधाई दाता की। नीचे की तरफ कई-कई मित्रमंडलों के नाम थे। अंत में आमजन से निवेदन किया गया था कि सत्य की जीत के उपलक्ष में आयोजित विजय जुलूस में शामिल होने का समाचार पत्रों में खबर भी थी कि विजय जुलूस में कौन-कौनसे राष्ट्रीय, प्रादेशिक और स्थानीय नेता शामिल होंगे। विजय जुलूस को सफल बनाने के लिए अपीलकर्ताओं में अनेकानेक संस्थाओं और व्यक्तियों के नाम थे।
जैसा कि तय था सत्य का शानदार विजय जुलूस निकला। जिसका चौराहो-चौराहों पर स्वागत हुआ। इस अवसर पर प्रत्येक चौराहे पर सत्य का साफा बांधकर सम्मान किया। स्वागत मंच पर आयोजकों और विशिष्टजनों का जमावड़ा था। जहां तक आमजनों का सवाल है, उन्होंने दूर से ही सत्य के दर्शन कर स्वयं को कृतार्थ किया। सत्य ने भी आमजन को अनदेखा नहीं किया। अपने गले की मालाएं निकालकर आमजन पर फेंकी। करबद्ध अभिवादन किया और तर्जनी व मध्यमा को ‘V’ आकार में फैलाकर अपनी विजय का संदेश दिया।
विजय जुलूस की समाप्ति पर जनता चौक में एक सभा आयोजित की गई। वक्ताओं ने संघर्ष में सत्य को हुई परेशानियों का वर्णन किया। सत्य के जुझारूपन का बखान किया गया। अंत में सत्य ने अपने संबोधन में अपनी लड़ाई को जनता की लड़ाई अपनी जीत को जनता की जीत बताया। साथ ही आम जनता और साथियों सहयोगियों के प्रति आभार प्रकट किया। अंत में गगन भेदी नारों के साथ सभा का समापन हुआ। सत्यमेव जयते
अगर आप यह समझ रहे हैं कि सत्य ने असत्य के विरुद्ध चुनाव जीता तो, आप गलती कर रहे हैं। दरअसल सत्य ने एक मुकदमा जीता था, जो बरसों से चल रहा था। मुकदमा एक लंबी-चौड़ी जमीन को लेकर था। जमीन मौके की थी। जिसकी कीमत करोड़ों में आंकी जा रही थी। जमीन पर जिस विपक्षी के द्वारा दावा जताया जा रहा था, सत्य के शब्दों में उसका नाम असत्य था। यह भी संयोग ही था कि सत्य और असत्य एक ही माता-पिता की संतान थे। इतना ही नहीं सबसे बड़ी बात यह थी कि दोनों जुड़वां भाई थे। लिहाजा दोनों की शक्लें भी एक जैसी थीं। यही वजह है कि सारे मुकदमे के दौरान वकील, गवाह, बाबू सब गफलत में पड़ जाते कि इनमें सत्य कौन है और असत्य कौन है। इस गफलत से बचने के लिए कोर्ट ने दोनों की पहचान तय कर दी थी।
बहरहाल जब सत्य के आसपास की भीड़ छंटी, तब मैं सत्य से मिला। सत्य सोफे पर अधलेटा पसरा हुआ था। कमरे में फूलों की खुशबू के साथ-साथ कोई भपका भी महसूस किया जा सकता था। सत्य की आंखों में प्रभावशाली लाल डोरे तैर रहे थे। मैंने सत्य से पूछा ‘अपने ही जुड़वां भाई से मुकदमा लड़ना आपको कैसा लगा?’ ‘न्याय-अन्याय, औचित्य-अनौचित्य के संघर्ष में नाते-रिश्ते गौण हो जाते हैं। इसी भावना के साथ मैं भारी मन से मुकदमा लड़ा। सच पूछो तो आज भी मैं अपने भाई से कहीं न कहीं भावनात्मक रूप से जुड़ा हूं। आखिर है, तो वह मेरा भाई, इतना कहते-कहते सत्य भावुक हो गया और उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।’ सत्य के बंगले से मैं बाहर निकला और झुग्गी-झोपड़ियों में से होकर जा रहा था कि एक व्यक्ति मुझे सिसकता हुआ मिला। उसकी शक्ल से मैं जान गया कि यह पराजित हो चुका असत्य है। मैंने उससे कहा-‘अब रोने से क्या फायदा।” सत्य की सदा विजय होती है और वही हुआ।’ ‘कैसा सत्य, कैसी विजय’ उसकी पत्नी ने कहा, ‘ये जो सुबक रहे हैं, वह सत्य है। और उधर जो जीत का जश्न मना रहा है, वह असत्य है।’ असमंजस में पड़ा मैं कभी झोपड़ी को तो कभी बंगले को देखने लगा और सोच में पड़ गया कि सत्य कौन है? जीत किसकी हुई ? सत्यमेव जयते
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