https://zindagiblog.com/ zindagiblog.com
जिंदगी जीने के लिए ...

मदर टेरेसा मानवता की मां – Mother Teresa एक  सर्वश्रेष्ठ भारतीय

कुछ वर्ष पूर्व एक पत्रिका के सर्वेक्षण में मदर टेरेसा को आजादी के बाद से भारत का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति घोषित किया गया। इस सर्वे में मदर टेरेसा ने क्रम में पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी पीछे छोड़ दिया। सर्वेक्षण में महात्मा गांधी का नाम शामिल नहीं किया गया था। इस संबंध में पत्रिका का कहना था कि राष्ट्रपिता इस तरह के सर्वेक्षणों से ऊपर हैं। आज हम इस लेख में उन्ही मदर टेरेसा की बात करते हैं और जानते हैं कि कैसे थीं मदर टेरेसा मानवता की मां और Mother Teresa एक  सर्वश्रेष्ठ भारतीय

मदर टेरेसा को नोबेल पुरस्कार

                                                                                धीरे-धीरे डग भरती एक कृशकाय मंच की सीढ़ियां चढ़ रही थी। विश्वभर के संभ्रांत लोगों से हॉल खचाखच भरा है। सभी की एकटक निगाहें नीली बॉर्डर की साड़ी पहने इस महिला पर टिकी हैं। माइक संभालते ही यह महिला लोगों से प्रार्थना करने का आग्रह करती है। फिर खुद को दिए जाने वाले पुरस्कार के बाद होने वाले भोज के पैसों को दीन-दुखियों और बेसहारा बच्चों के लिए दिए जाने की अपील करती है। हॉल स्तब्ध रह जाता है। तत्क्षण तालियों की गड़गड़ाहट | लोग इस महिला को मिलने, देखने, छूने उमड़ पड़ते हैं। बात है सन 1979 की, स्थान था स्टॉकहोम, अवसर था विश्व के सबसे प्रतिष्ठित नोबेल शांति पुरस्कार वितरण समारोह का ।

जिस महिला के एक वक्तव्य से पूरे स्वीडन में चंदा देने की होड़ लग गई थी, वो थीं मदर टेरेसा । कई लोगों का मानना है कि ‘मां’ शब्द से आदरमय कोई शब्द शायद ही दुनिया की किसी डिक्शनरी में हो । जब भी इस शब्द का जिक्र किया जाता है तो कुछ चेहरे आंखों के आगे अनायास ही तैरने लगते हैं। इनमें निश्चय ही एक चेहरा होता है विश्व मानवता की मां सरीखी इस शख्सियत का, जो करुणा की वैश्विक प्रतीक हैं, मरणासन्न लोगों के लिए जीवन होम कर देने वाली ममता की मूरत हैं। देश के लिए कोई विदेशी इतना आत्मीय कभी नहीं रहा। हजारों दीन-दुखियों की आंखों में नीली किनारे की साड़ी वाली मदर का अक्स जीवन की आस जगाता था, भले ही उन्हें ‘संत’ की उपाधि काफी देरी से मिली।

मदर टेरेसा को भारत रत्न

                                                                 मदर कब भारत आईं, कब यहां की माटी में रचबस गईं, बहुतेरे लोगों को मालूम ही नहीं होगा। मदर का खुद ही कहना था कि वे भले ही भारत में नहीं जन्मी हों, लेकिन यहां के दीन-दुखियों में सदियों से उनकी आत्मा रची-बसी है। इस करुणामूर्ति के प्रति देश ने भी अप्रतिम प्यार जताया है। भारत सरकार ने सन्न  1980 में उन्हें सर्वोच्च सम्मान “भारतरत्न” से भी नवाज़ा। वे पहली गैर भारतीय थीं, जिन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया था, लेकिन खुद उनकी नज़र में लोगों का प्यार उनका सबसे बड़ा पुरस्कार था।        मदर टेरेसा मानवता की मां

मदर टेरेसा को अन्य पुरस्कार

                                                                  मदर टेरेसा को उनके कार्यों के लिए भारत ही नहीं पूरे विश्व में सराहा गया और सम्मानित किया गया। 1962 में उन्हें रेमोन मैगसेसे अवार्ड दिया गया, 1979 में उन्हें नोबेल प्राइज़ से नवाज़ा गया। 2003 में कैथलिक चर्च द्वारा उनका “बीटिफिकेशन” किया गया अर्थात संत की उपाधि दिए जाने की दिशा में तीसरा कदम। भारत सरकार ने टेरेसा को  पद्मश्री की उपाधी दी और 1980 में उन्हें सर्वोच्च सम्मान “भारतरत्न” से भी नवाज़ा गया। ये सभी उपाधियाँ और सम्मान समाज को उनके योगदान के आगे नगण्य हैं, मदर टेरेसा मानवता और परोपकार के क्षेत्र में 20वीं सदी की सबसे बड़ी मिसाल हैं।

मदर टेरेसा का जन्म और  बचपन

                                                                                      कुछ अलसाया सा अलबानिया का स्कोप्ज शहर जाग रहा है। खूबसूरत छोटा सा कस्बा, आबादी यही कोई कुछ हजार में छोटी सी ईंटों की गलियों के दोनों ओर लाल मीनारों वाले घर दिखाई दे रहे हैं। 26 अगस्त, 1910 की एक सुबह पार्श्व में कोहरा माहौल में और रुमानियत भर रहा है। बोजास्क्यू हाउस में काफी चहल-पहल है। हो भी क्यों न आखिर बोजास्क्यू दंपती (निकोलस और ड्रेनफाइल) की सबसे छोटी बेटी के जन्म का अवसर है, नाम रखा गया एग्नेस बोंजा बोजास्क्यू

बड़े भाई बहन की लाड़ली। भाई लार्जर तीन साल बड़े थे वहीं बहन एज छह साल बड़ी । खुशहाल परिवार। आठ साल की उम्र में जीवन पर पहला तुषारापात हुआ पिता की मौत। उसके बाद, बचपन मां के आंचल तले ही गुजरा, उन्हीं को देखकर जीवन में अध्यात्म का समावेश होता चला गया। उसे बचपन से ही मिशनरीज की कहानियां   बेहद प्रभावित करती थीं। इसी वातावरण में पालन पोषण का परिणाम था कि एग्नेस 8 साल की उम्र में ही नन बनने के सपने देखने लगी। उनके प्रारंभिक जीवन में फादर जेंब्रेकोविक का काफी आध्यात्मिक प्रभाव था। ये मिशनरीज की एक संस्था सोलेडरिटी से जुड़े थे। एग्नेस को लगातार मिशनरीज की बातें प्रेरित प्रभावित कर रही थीं। 18 वर्ष की होते-होते उसकी धारणा दृढ़ हो गई। दीन दुखियों को देखकर ही उसे रोना आता था। अंदर ही अंदर अपने से सवाल करती कि आखिर मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है। एक दिन उसे जवाब मिल ही गया, नन बनकर दुखियों की सेवा में जीवन होम करना। आखिर मां को भी मानना पड़ा। उसे दुखी मन से उन्होंने अनुमति दे ही दी।

मदर टेरेसा का भारत का सफर

                                                                                 एग्नेस अपना जीवन उद्देश्य पूरा करने के लिए ऑयरलैंड के रॉथफारहैम के सिस्टर्स ऑफ लॉरेटो मिशन के साथ जुड़ गईं। यहां उन्होंने अंग्रेजी सीखी जो लॉरेट मिशन के भारतीय स्कूलों में शिक्षण की भाषा थी। साथ ही यहीं उन्हें सेवाभाव और संगठन का प्रारंभिक ज्ञान मिला। जो बाद में मिशनरीज ऑफ चैरिटीज की स्थापना के समय उनके बेहद काम आया। वे यहां की ननों की सेवा भाव देखकर दंग रह जाती थीं। यहां काफी समय तक उनका प्रशिक्षण चला, इसके पश्चात उन्हें भारत भेजे जाने का फैसला किया गया। यहां से करुणामयी उस महिला का निर्माण शुरू हुआ, जिसने आगे चलकर त्याग- ममता जैसे शब्दों को महानतम ऊंचाइयां दीं।

‘एग्नेस बोंजा बोजास्क्यू’ से ‘मदर’ का खिताब

                                                                                                                    लोरेटो मुख्यालय में अंग्रेजी सीखने के बाद एग्नेस 1929 में कोलकाता पहुंचीं। बाद में उन्हें पुनः प्रशिक्षण के लिए दार्जिलिंग भेजा गया। वहां दो वर्ष तक उन्हें नैतिकता, अंग्रेजी और बांग्ला की शिक्षा दी गई। 1931 को महान संत टेरेसा से अभिभूत होकर उन्होंने अपना नाम टेरेसा रख लिया। यहां एक और सिस्टर टेरेसा भी थीं। मदर को बाद में बंगाली टेरेसा के नाम से पुकारा जाने लगा। पहले पहल उन्हें कोलकाता के लोरेटो कॉन्वेंट के सेंट मेरी स्कूल में भेजा गया। वहां वे 17 वर्ष तक भूगोल, इतिहास और धर्म-शिक्षा आदि पढ़ाती रहीं। स्कूल के बाद बच्चों को नहलातीं, धुलातीं, पढ़ातीं या प्रार्थना करातीं। उस वक्त की प्रिंसिपल मदर सेनेकल के बीमार होने के बाद 1944 में उनकी जगह टेरेसा को दी गई तब से वे भी मदर कही जाने लगीं। यहां पर ही उनकी फादर सी. वैन एक्सेम से भेंट हुई। यही फादर एक्सेम मदर के आध्यात्मिक सलाहकार बने। अपनी मृत्यु तक वे मदर के सलाहकार बने रहे।                                                        मदर टेरेसा मानवता की मां

मिशनरीज ऑफ चैरिटीज की स्थापना

                                                                                                   मिशनरीज ऑफ चैरिटीज की स्थापना के पीछे की कहानी भी काफी अलग है। सेंट मेरी स्कूल में अध्यापन के दौरान उन्हें एक बार दार्जिलिंग जाना पड़ा। सन था 1946, उन्हें ट्रेन में ही ऐसा लगा जैसे कोई उन्हें पुकार रहा है अपना जीवन उद्देश्य पूरा करो, दीन-दुखी, दरिद्रों की सुध लो, वे अभिशप्त जीवन जी रहे हैं, उन्हें प्रकाशित करो। मदर को लगा यह पुकार मदर मेरी कर रही हैं। इस एक पल के बाद उन्होंने अपना जीवन गरीबों की सेवा में लगाने का फैसला कर लिया। इस घटना के बाद उन्हें एक पल भी चैन नहीं मिला। लौटते ही मदर फादर वैन एक्सेम से मिलीं और उन्हें अपने अनुभव की बात कही। जिस पर फादर ने लोरेटो मुख्यालय से बात की। बाद में मदर को लोरेटो की मदर जनरल से लोरेटो छोड़ने की अनुमति लेने को कहा गया।

अगस्त, 1948 में वे लोरेटो से मुक्त हो गईं। यहां से उन्होंने पूरी तरह भारतीय परिधान अपना लिया, नीली बॉर्डर वाली सफेद साड़ी का अपना ट्रेडमार्क परिधान। ये सिलसिला ताउम्र चलता रहा। 1948 से वे नन रहने के साथ-साथ गरीब बस्तियों में काम कर सकती थीं। इन बस्तियों की जरूरत समझकर उन्होंने प्रारंभिक चिकित्सकीय प्रशिक्षण प्राप्त करना जरूरी समझा। इस काम को सीखने के लिए मदर पटना गईं | यहां उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त किया। इस प्रशिक्षण के बाद उनके जीवन में सबसे कठिन दिन आने वाले थे तो सबसे संतोष के दिन भी वही रहने वाले थे। मदर भावी जीवन के प्रति बेहद उत्साहित भी थीं तो उन्हें कुछ संशय भी था, लेकिन अपनी भावना अपने आप पर पूर्ण भरोसा था। यही वो शक्ति थी जिसके आधार पर जीवन में उन्होंने निर्णय और उन पर चल कर सफल भी हुईं। वे फिर कोलकाता लौट आई। अब की बार वे ईश्वर के लोगों के बीच आ रही थीं, अपने लोगों के बीच काम करने के उत्साह से भरपूर थीं।

9 दिसम्बर, 1948 को मदर कोलकाता लौटीं। अब एक नई समस्या से उनका सामना हुआ। वे काम कैसे शुरू करें। वे कोई ऐसा काम कर नहीं सकती थीं जिसमें तत्काल पैसे की जरूरत हो, क्योंकि पैसे बिल्कुल थे ही नहीं। इस विकट परिस्थितियों में उन्होंने फिर अपने प्रभु को याद किया, फिर वे मोती झील की गरीब बस्तियों में गई। यहां उन्होंने बच्चों को पढ़ाने की शुरुआत की। पांच बच्चों का स्कूल, पेड़ के नीचे कक्षा। काफी दिनों तक यूं ही चला। फिर जैसे तैसे कुछ पैसे की व्यवस्था हुई, दो कमरे किराए पर लिए गए। एक वर्ष में बच्चों की संख्या 56 तक पहुंच गई। अब मदर का आत्मविश्वास भी जमने लगा था। पढ़ाई के साथ-साथ वे बच्चों की देखभाल भी करती थीं। कुछ गरीब भी उनके पास इलाज करवाने के लिए आने लगे। उनके लिए स्कूल के बरामदे में ही एक डिस्पेंसरी खोली गई। वे अक्सर प्रार्थना करती कि ईश्वर उन्हें ज्यादा से ज्यादा सेवा करने की हिम्मत दे।                                              मदर टेरेसा मानवता की मां

यहां आने वाले अधिकांश रोगी रिक्शा चालक, कुली और मजदूर होते थे। जिनकी इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वे अपने लिए रोटी तक जुटा सकें, दवाइयों की बात तो दूर थी। मदर को यह बात लगातार कचोटती थी। बच्चों की दशा देखकर भी उनका मन व्यथित हो जाता था। इस दौरान जो भी जमापूंजी इकट्ठी हुई उससे उन्होंने जनवरी 1949 में तिलजला में भी एक स्कूल खोल लिया। काम बढ़ने लगा तो ज्यादा जगह की जरूरत पड़ने लगी। इसकी खोज शुरू हुई। इसी बीच उन्हें कोलकाता म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन की ओर से दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पास एक जगह दी गई, जहां वे रोगियों की देखभाल कर सकती थीं। यहां परिस्थितियां विकट हो गईं, मंदिर के पुजारियों ने उनके काम का जबर्दस्त विरोध किया। पुलिस तक बुला ली गई, लेकिन जब लोगों ने उन्हें एक मरणासन्न रोगी की किसी मां के समान सेवा करते देखा तो विरोध कुछ ढीला पड़ा। ये विचार आगे चलकर दीन-दुखियों की सेवा के लिए निर्मल हृदय की स्थापना में परिणित हुआ। बाद में 7 अक्टूबर, 1950 को वेटिकन की अनुमति से महान मिशन की शुरुआत हुई। नाम दिया गया मिशनरीज ऑफ चैरिटी । इस मिशन ने बाद में पूरे विश्व में जो काम किया, जो अपने आप में इतिहास है।

मिशनरीज ऑफ चैरिटी का मुख्यालय ‘मदर हाऊस’

                                                                                                                                          विश्व मानवता का एक स्थायी पता है, 54, ए लोअर सर्कुलर रोड, कोलकाता। दीन-दुखियों, मरणासन्न लोगों का भी कोलकाता में यही पता चलता है। भले ही इसे मिशनरीज ऑफ चैरिटी का मुख्यालय कहा जाता हो, लेकिन आम लोगों में इसकी पहचान मदर हाउस के रूप में है। यह जगह गवाह इस संस्था के संगठन गठन की। उन परिस्थितियों, जहां मदर ने अपना सर्वस्व होम कर इसे ऊंचाइयां दिलवाईं। सिस्टर्स आती गईं, गरीबों की सेवा करने के प्रण के साथ मदर सबको साथ लेती गईं। मानव सेवा का उनका कोर्स शुरू हुआ। सिस्टर्स को अंग्रेजी सहित स्थानीय भाषा सिखाई गई । धार्मिक शिक्षा दी गई। पूरे एक वर्ष के प्रशिक्षण की योजना थी यह। आज 131 देशों में मिशनरीज ऑफ चैरिटी के 700 से अधिक केन्द्र हैं, जहां साढ़े चार हजार से अधिक सिस्टर्स सेवा कार्यों में जुटी हैं।

मिशनरीज आफ चैरिटी के संविधान में लिखा है, ”मरणासन्न लोगों के अपने केन्द्रों में हम चाहते हैं कि यहां आने वालों की मृत्यु सुखकर हो। इस एहसास के साथ कि ईश्वर उनके करीब हैं। हम अपने को इस रूप में प्रशिक्षित करते हैं कि मन में करुणा, नम्रता, प्रेमपूर्ण बोली और मुस्कुराहट के साथ मरणासन्न की सेवा हो ।”

मदर टेरेसा का देहांत

                                                         मदर ने एक बार कहा कि उन्हें अक्सर सपना आता है कि वे स्वर्ग के गेट पर खड़ी हुई हैं। वहां सेंट पीटर उनसे कह रहे हैं, वापस जाओ। यहां कोई दीन-दुखियों की बस्ती नहीं है। भारत में आने के बाद लगातार 58 साल तक वे अपने मिशन में जुटी रहीं। 1989 में लगाया गया पेसमेकर और काम कम करने की डाक्टरों की सलाह उनके रास्ते का रोड़ा कभी नहीं बन पाई। मदर टेरेसा ने नोबेल शांति पुरस्कार स्वीकार करते समय 11 दिसंबर को कहा था यह कहना पर्याप्त नहीं है कि “हम ईश्वर से प्रेम करते हैं पर अपने पड़ोसी से नहीं। ईश्वर ने क्रॉस पर मृत्यु के द्वारा यह बताया है कि वह गरीबों में है। वह उनमें से है, जिनके पास पहनने को कपड़े नहीं हैं, हमें उसे ढूंढ़ना है।” वह कहती थीं “ईश्वर हर जगह नहीं हो सकता इसलिए उसने माँ बनायी है” आने वाले बड़े दिन का अवसर खुशहाली से परिपूर्ण है, क्योंकि ईश्वर हमारे दिल में है, मुस्कुराहट में है, जो हमें मिलती है। उस मुस्कुराहट में है, जो हम देते हैं। अपने जीवन में वे यही मुस्कुराहट ढूंढ़ती-ढूंढ़ती 5 सितंबर, 1997 को मौन हो गईं। अविचल, अटल शांतिमय मौन ।                                                                 मदर टेरेसा मानवता की मां

मदर टेरेसा कम बी माई लाइट

                                                                           उनके देहावसान के बाद प्रकाशित  ‘मदर टेरेसा कम बी माई लाइट‘ ने नए सवाल भी खड़े किए। किताब में मदर के कई खतों को प्रकाशित किया गया है, जिससे यह पता लगता है कि अपनी ज़िंदगी के आखिरी वक्त तक वे ईश्वर के अस्तित्व को लेकर संशय में थीं। नोबेल पुरस्कार मिलने के कुछ महीने पहले उन्होंने पादरी माइकल वैन को लिखा कि उन्हें महसूस होता है कि ईश्वर नहीं है, क्योंकि उन्हें न तो कभी उसकी अनुभूति हुई और न ही कभी प्रार्थनाओं का जवाब मिला। एक अन्य पत्र में मदर ने लिखा, ”मेरे लिए सन्नाटा और खालीपन बहुत गहरा है। इतना गहरा कि मैं देखना चाहती हूं और देख नहीं पाती, सुनना चाहती हूं और सुनाई नहीं देता।” ये सभी पत्र ऐसे लोगों को लिखे गए थे, जो उनके बहुत करीबी थे। वैन को ही उन्होंने लिखा था कि ”ईसा, तुम्हें अलग तरह से प्यार करते हैं… पर मेरे लिए तो सन्नाटा और अकेलापन इतना ज्यादा है कि मैं नज़र तो डालती हूं, पर कुछ दिखाई नहीं देता। कान तो लगाती हूं, पर कुछ सुनाई नहीं देता।  मेरी जीभ (प्रार्थना) चलती है, पर आवाज नहीं निकलती। मैं चाहती हूं कि तुम मेरे लिए प्रार्थना करो।” इन पत्रों से उनका दूसरा स्वरूप सामने आता है। मदर टेरेसा, इन पत्रों में जीवन के रूखेपन, अंधेरे, अकेलेपन और दर्द के बारे में बात करती हैं।                                      मदर टेरेसा मानवता की मां

इन पत्रों ने धार्मिक जगत में विवाद पैदा कर दिया था। दूसरी तरफ यूनियन कार्बाइड के वारेन एंडरसन तथा हैती के तानाशाह की कथित तरफदारी ने उनके प्रति संशय बना दिया था, लेकिन वे कुछ बुलबुले थे। उनकी छवि एक ईसाई संत से ऊपर थी, एक मानव सेविका की तरह अप्रतिम आदरणीय !

जब राष्ट्रपति को भी आए आंसू

                                                                         मदर टेरेसा की सेवा भावना के आधार पर उन्हें पदमश्री देने का निर्णय लिया गया। 26 जनवरी, 1962 को मदर टेरेसा पद्मश्री लेने दिल्ली पहुंचीं। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित के अनुसार नीले किनारे वाली साड़ी में वो महान आत्मा राष्ट्रपति भवन के दरबार हॉल में स्वर्गिक शांति के साथ पुरस्कार लेने पहुंचीं। उन्होंने पुरस्कार अपनी बांहों में किसी बेसहारे बच्चे के समान धारण किया। उस क्षण उनके चेहरे का तेज अवर्णनीय था। पूरा हॉल पगला गया। राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी अपनी भावनाएं न रोक सके। उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े। एक महान आत्मा के लिए एक आत्मीय जन का आंतरिक पुरस्कार था। सच में मदर टेरेसा एक  सर्वश्रेष्ठ भारतीय थीं ।।

ये भी पढ़ें –

शेयर मार्केट का फंडा क्या है – शेयर बाजार को कैसे समझें?

बचपन से दूर होते बच्चे – कहां गयी मासूमियत ?

 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *