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मां और बेटी का रिश्ता 

मां और बेटी का रिश्ता – मां की परछाई है बेटी

क  बहुत प्रचलित और पुरानी कहावत है कि  “बेटी मां की परछाई होती है और बाप का गरूर” लेकिन आज इस लेख में हम बात करेंगे माँ और बेटी के रिश्ते के बारे में,  इस लेख में हम आगे जानेंगे कि मां और बेटी का रिश्ता कैसा होना चाहिए और मां की परछाई है बेटी कैसे होती है।

मां और बेटी का रिश्ता कैसा होता है ?

माँ और बेटी का यह रिश्ता इतना महीन, इतना आत्मीय है कि और कोई संबंध इसकी बराबरी नहीं कर सकता। बेटी मां का ही नन्हा रूप है। एक स्त्री के अंतर्मन में ऐसे कई कक्ष होते हैं जो दिन की रोशनी कभी नहीं देखते, उनकी झलक बेटी ही देख सकती है।

बेटियां बेटों से कम नहीं हैं

विश्व की सभी संस्कृतियों में पिता-पुत्र के नाते के बारे में गौरवपूर्ण उल्लेख है, क्योंकि पुत्र एक तो पिता की जायदाद का वारिस है, वंश का नाम आगे चलाता है और भारत में तो मरने के बाद भी पिता को सद्गति दे सकता है, लेकिन आश्चर्य है कि भारतीय मनीषी कहीं पर भी मां और बेटी के नाते की चर्चा करना आवश्यक नहीं समझते। और न केवल भारतीय वरन विश्व के सांस्कृतिक इतिहास में इस रिश्ते की कोई अहमियत नहीं है। वह तो आधुनिक समय में जब धीरे-धीरे नारी अपना वजूद कायम करने लगी है, तब वह अपनी मां के साथ अपने रिश्ते का विश्लेषण करने लगी है। इसका श्रेय जाता है पाश्चात्य मनोविज्ञान को। मनोविज्ञान मानता है कि मनुष्य की हर मानसिक समस्या की जड़ें उसके बचपन में हैं, उसके अपने मां-बाप के साथ संबंध कैसे थे इस पर उसका आज का व्यक्तित्व निर्भर करता है। इसलिए अब पाश्चात्य स्त्रियां खुलकर अपनी मां के साथ अपने रिश्ते की चर्चा करने लगी हैं, उस पर किताबें लिख रही हैं। यह स्वागतार्ह है और नारी के विकास में इसका बहुत महत्वपूर्ण योगदान है।                                              मां और बेटी का रिश्ता 

माँ और बेटी का संबंध

यह रिश्ता इतना महीन, इतना आत्मीय है कि और कोई संबंध इसकी बराबरी नहीं कर सकता। बेटी मां का ही नन्हा रूप है। एक स्त्री के अंतर्मन में ऐसे कई कक्ष होते हैं जो दिन की रोशनी कभी नहीं देखते; उनकी झलक बेटी ही देख सकती है। बेटी के साथ मां अपनी उन सभी स्त्रैण संवेदनाओं का तादात्म्य अनुभव करती है। इस समाज में, जब तक पुरुष अपनी कुंठाओं से मुक्त नहीं होता तब तक स्त्री का जीवन हर उम्र में असुरक्षित है। यहां एक स्त्री होने का मतलब कितने भयों को पालना है, वह एक मां ही समझ सकती है, इसलिए उसे बेटी के लिए हर वक्त चौकन्ना रहना पड़ता है और अबोध बेटी को लगता है कि उसे दबाया जा रहा है, उसके भाई को अधिक आजादी मिलती है।

बेटी बहुत संवेदना के साथ मां के सुख-दुख पीती रहती है और धीरे-धीरे वह अपनी मां की प्रतिकृति बनती जाती है। अपनी मां के सारे गुण-अवगुण आत्मसात कर उसका स्त्रीत्व विकसित होता है। यह रिश्ता बहुत अनोखा और बहुत पेचीदा भी है। बेटी का यौवन जैसे-जैसे अंगडाई लेने लगता है वैसे-वैसे मां के मन में दो भाव जन्म लेते हैं एक भय और दूसरा ईर्ष्या इसे स्वीकार करना बहुत कठिन होगा, लेकिन यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि माँ एक स्त्री भी है और हर स्त्री के लिए उसका शरीर, उसकी सुंदरता हद से ज्यादा महत्वपूर्ण है। माँ का यौवन और उसकी सुंदरता बेटी के युवा होने पर मुरझाने लगते है। तो एक तरफ वह बेटी पर नाज करती है और दूसरे तरफ उसके मन में ईग्यो भी रेंगती रहती है।

इधर बेटी भी माँ  को आदर्श तो मानती है, लेकिन पिता पर उसका जो अधिकार है उसमें जलती भी है। इन स्त्रियोचित मनोभावों की गुत्थी को सुलझाना परिवार के मानसिक स्वास्थ्य के लिए परम आवश्यक है। यही बेटी कल किसी घर की गृहिणी बनकर जाएगी, एक नया परिवार बगाएगी, मनुष्य की नई पीढ़ी को संस्कारित करेंगी। यदि उसके भाव सुलझे हुए और साफ-सुथरे हो तो वह अपने परिवार को एक स्वस्थ मानसिकता दे सकती है और जाहिर है, परिवार जितना निरामय हो उतना समाज स्वस्थ होगा। प्रेम  के पाठ तो बेटी ने अपनी मां से ही सीखें हैं।  यदि बेटी देखती है कि मो स्नेहमयी है, घर में आने जाने वालों का दिल खोलकर आतिथ्य  करती है, तो वह अनजाने चे गुण आत्मसात करेगी। कई स्त्रियां बहुत दबंग होती हैं, घर में सबको दबाती राहती हैं तो उनकी बेटी भी शादी के बाद अपने पति- बच्चों को दबाएगी।                                                          मां और बेटी का रिश्ता 

माँ बेटी का रिश्ता कैसे मजबूत बनाएं ?

मां-बेटी के बीच जो आत्मीयता है उसका बहुत रचनात्मक उपयोग हो सकता है। मां अपने अनुभव तो बेटी के साथ बांटे, लेकिन अपने बचपन के बंधन बेटी पर ना लादे, क्योंकि उन दोनों का समय और माहौल बिल्कुल अलग है। दोनों में प्रेम तो हो, लेकिन पकड़ न हो। यदि इतनी सजगता से इस रिश्ते को सींचा जाए तो अंग्रेजी की वह कहावत चरितार्थ हो सकती है “बेटा तभी तक बेटा है जब तक ब्याह नहीं करता, बेटी तब तक बेटी है जब तक मर नहीं जाती।”

अपनी जिम्मेदारी खुद लो

मनोविज्ञान ने आजकल एक नई बीमारी पैदा की है आपके जो भी दुर्गुण हैं उनके लिए आपके मां-बाप जिम्मेदार हैं। आदमी का मन हमेशा अपनी जिम्मेदारी दूसरे पर डालना पसंद करता है। पहले वह ईश्वर था जो मनुष्य के हर अच्छे-बुरे कृत्य के लिए जिम्मेदार होता था या फिर भाग्य; अब बचपन में मां या पिता जी हैं जिन्होंने गलत बीज बोए, जिससे विषाक्त पौधा हुआ अधिकतर यह जिम्मेदारी मां पर अधिक डाली जाती है, क्योंकि बच्चे मां के अधिक करीब होते हैं। इसकी शुरुआत की है सिग्मंड फ्रॉयड ने। वह यहूदी था और यहूदी माताएं बहुत कठोर होती हैं। फ्रॉयड ने अपने अनुभव के आधार पर मां को हर बात के लिए दोषी ठहराया। अब सवाल उठता, मां को इस तरह किसने बनाया? तो उसकी मां ने और उसे उसकी मां ने यानी कि जिम्मेदारी डालने का यह सिलसिला अंतहीन रूप से पीछे सरकता जाता है। इससे तो कभी कोई रूपांतरण हो ही नहीं सकता। परिस्थिति कभी नहीं सुधरेगी।               मां और बेटी का रिश्ता 

मैं कहता हूं, अपनी जिम्मेदारी खुद लो। माना कि तुम्हारे जो भी गुण-अवगुण हैं उसके लिए तुम्हारी मां जिम्मेदार है, लेकिन वह समय अब गुजर चुका, अब उसे लौटाया नहीं जा सकता। अब या तो इस पीड़ा के नीचे दबे-दबे जिओ या फिर उसके घाव को दूर करने की कोशिश करो। हमारे परिवार का ढांचा ही ऐसा है कि मां और बेटी के बीच या पिता और पुत्र के बीच ईर्ष्या होनी स्वाभाविक है। क्योंकि बेटी पिता से आकर्षित रहती है और बेटा मां से, लेकिन इसकी अभिव्यक्ति संभव नहीं है, इसलिए दोनों के बीच तनाव बना रहता है। सामंजस्यपूर्ण पारिवारिक जीवन के लिए इसके मनोविज्ञान को समझकर इस गुत्थी को सुलझाया जाना चाहिए। प्राचीन संस्कृति में ‘मातृ देवो भव’ या ‘पितृ देवो भव’ जैसे वचन कहे गए हैं, वे बहुत अर्थपूर्ण हैं। यदि बच्चे बड़े होने पर अपने मां बाप के प्रति अनुग्रह से भर सकें, उनके प्रति शिकायत मन में न पालें तो उनकी आत्मिक उन्नति के लिए यह बहुत सहयोगी होगा ।।

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