सत्य सभी सीमाओं और संकीर्णताओं को तोड़कर निर्बन्ध बहता है और सभी विरोधाभासों को अपने में समाहित कर लेता है। यह सत्य का स्वरूप है, सत्य की चेतना है, सत्य का आनंद है। यह सत्य की सार्वभौमिकता है। दुनिया में महापरूषों ने सत्य को अपने अपने तरीके से परिभाषित किया है आगे हम जानते हैं कि महापरूषों ने अपना अपना सच कैसे बताया है व सच्चिदानंद का अर्थ क्या है ?
सत्य के मायने
हम अपने चारों ओर की ज़िंदगी पर नजर डालें तो पाएंगे कि यहां संवाद कम और विवाद अधिक हैं और अधिकतर विवाद सत्य के संबंध में हैं, लेकिन सत्य है कि सभी विवादों से परे खड़ा हम पर मुस्कुराता रहता है। विवाद अपनी जगह हैं और सत्य अपनी जगह है यह स्थिति निर्विवाद है।
यहां हर व्यक्ति सत्य को अपने ढंग से अभिव्यक्त करता है। किन्हीं दो व्यक्तियों की अभिव्यक्ति एक जैसी नहीं होती, अगर वे मौलिक हैं और एक-दूसरे की प्रतिलिपि नहीं हैं। अभिव्यक्ति की मौलिकता, यहां तक तो ठीक है, लेकिन मौलिकता के साथ जब व्यक्ति का तादात्म्य हो जाता है, वह आग्रही हो जाता है, गांधीगिरी की भाषा में कहें तो सत्याग्रही हो जाता है। व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति के साथ अपनी छाप लगा देता है, आग्रह जोड़ देता है, तब सत्य सत्य न होकर ‘मेरा सत्य’ हो जाता है। अभिव्यक्ति की विविधता के कारण ‘मेरा सत्य’ ‘तुम्हारे सत्य’ अथवा ‘उसके सत्य’ से टकराता है और विवाद खड़ा हो जाता है। दुनिया में जितने झगड़े सत्य के कारण हो रहे हैं उतने असत्य के कारण नहीं- और उनका मुख्य कारण है, मेरा सत्य, हमारा सत्य- सत्य के प्रति मेरे और हमारे का आग्रह । अपना अपना सच
हजारों वर्ष पहले भगवान महावीर ने सत्य के संबंध में होने वाले इन विवादों को परख लिया था और इनमें न फंसने और न उलझने के लिए स्यादवाद की एक अनूठी धारणा जगत को दी, लेकिन इस दुनिया में सत्य के संबंध में शोर गुल मचाने वालों का इतना कोला हल है कि महावीर की स्यादवाद की धारणा कहीं दबकर रह गई इतनी दब गई कि विश्व को तो खबर नहीं मिल सकी, जैन धर्म के सामान्य लोग भी उससे बेखबर रहे। फिर आए गांधीजी तथा उनके पीछे चलने वालों का एक महाविशाल जन-समूह जो सत्याग्रह को परम सत्य मानने लगा। भगवान महावीर ने सत्य के संबंध में ‘शायद’ की सप्तभंगी धारणा दी कि शायद यह सत्य है, यह सत्य नहीं भी है; इस धारणा के सात रूप दिए और व्यक्तियों को निराग्रही होने की देशना दी। ठोकपीट कर अपनी बात को कहने वाले लोगों को यह धारणा पसंद नहीं आती, क्योंकि इस धारणा के साथ चलकर व्यक्ति ध्यानी, साधक और प्रज्ञावान तो हो सकता है, लेकिन राजनीति तथा सामाजिक मान्यता की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता।
हमारे सामने हिटलर का एक उदाहरण है जो अपनी बात को ठोक-पीट कर कहने में विश्वास करता था और उसका यह भी विश्वास था कि अगर एक झूठ को दस बार बोला जाए, उसका जमकर प्रचार किया जाए तो वह जल्दी ही सच मान लिया जाता है। उसने अपने जीवन काल में असत्य को सत्य की भांति स्थापित करके घोर हिंसा का नंगा नाच किया। विज्ञापन की दुनिया के लोग हिटलर की इस धारणा से भलीभांति परिचित हैं और उसका खूब इस्तेमाल करके अपना माल बेचते हैं; इसे वे विज्ञापन का कमाल कहते हैं। अपना अपना सच
यह तथाकथित सत्य दुनिया पर सदा हावी रहता है, इसलिए दुनिया में इतनी हिंसा है। महावीर का शुद्ध सत्य इतना शुद्ध है कि वह किसी पर अपने को थोपता नहीं, कोई आग्रह नहीं करता, क्योंकि सब प्रकार के आरोपण एवं आग्रह सूक्ष्म रूप से हिंसात्मक होते हैं, वे व्यक्ति की निजता का तथा स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करते। महावीर जैसे संबुद्ध प्रज्ञापुरुष व्यक्ति को परम सम्मान व गरिमा देने के कारण परम अहिंसक हैं और गांधी जी जैसे युग पुरुष अपने आरोपण एवं आग्रह के कारण अहिंसक नहीं हैं, क्योंकि सत्य व आग्रह परस्पर विरोधी हैं।
भगवान महावीर का सत्य और उनकी अहिंसा इतनी सूक्ष्म है कि राजनीति और सामाजिक लोकप्रियता से ग्रस्त लोगों की समझ से परे है। इसके विपरीत गांधी का सत्य व उनकी अहिंसा इतने स्थूल हैं कि अधिकांश लोगों को समझ में आते हैं, लेकिन परिणाम क्या हुआ? राजनीति और सामाजिक लोकप्रियता के लोलुप लोगों ने गांधीजी के सत्य और अहिंसा का खूब शोषण व उपयोग किया और उस उपयोग के कारण ही हिंसा में भी संलग्न रहे। यह देशभर में तो हुआ ही, लेकिन गांधीजी की जन्मभूमि गुजरात में हुई हिंसा ने पूरे देश में हुई हिंसा को पीछे छोड़ दिया।
गांधीजी के सत्य और उनकी अहिंसा को महान व पूजनीय तो माना गया, लेकिन उस पर उतना विचार न हो पाया। ‘मुन्ना भाई लगे रहो’ जैसी फिल्में आ जाती हैं तो थोड़ा-बहुत विचार कर लिया जाता है, लेकिन समाज का बहुत बड़ा वर्ग उन पर मनन मंथन नहीं करता। इसलिए समाज की चेतना का स्तर ऊंचा नहीं उठ पाता।
चेतना का स्तर ऊंचा उठाने के लिए सत्य तथा विचारों की पूजा नहीं चाहिए, आग्रह और आरोपण नहीं चाहिए। एक खुला संवाद चाहिए। संवाद जिसमें वैमनस्यता नहीं हो, दूसरों के पहलुओं को समाहित करने की सागर जैसी प्रज्ञा हो । सत्य का कोई कूल-किनारा नहीं होता। सत्य सभी सीमाओं और संकीर्णताओं को तोड़कर निर्बंध बहता है और सभी विरोधाभासों को अपने में समाहित कर लेता है। यह सत्य का स्वरूप है, सत्य की चेतना है, सत्य का आनंद है। यह सत्य की सार्वभौमिकता है। अपना अपना सच
सच्चिदानंद
इस देश में हमने जीवन की परम अनुभूति को एक बहुत प्यारा शब्द दिया है, मात्र एक ही शब्द इतना महत्वपूर्ण है कि उसके छोटे से बीज में जीवन का पूरा शास्त्र समाहित है । वह शब्द है : सच्चिदानंद । सत्, चित और आनंद | सत्य अर्थात जो है, दैट विच इज चित अर्थात चैतन्य, जागरूकता, कांशसनेस एंड अवेयरनेस | आनंद यानी परम सुख, ब्लिस, दुख-सुख के पार की अवस्था । अगर व्यक्ति इसी एक शब्द को ठीक से समझ ले तो पर्याप्त है, उसके जीवन में सत्य का आविर्भाव होगा। जीवन में सत्य का आगमन तभी होता है जब व्यक्ति की चेतना समग्र रूपेण जाग्रत हो जाती है। और जो जागा उसने माणिक पाया, वह आनंदित हुआ। फिर उसके जीवन में अहिंसा, करुणा एवं प्रेम के फूल खिलते हैं, उसका जीवन सत्यं शिवं सुंदरम् से सुवासित होता है।
सच्चिदानंद-सत, चित और आनंद की उपलब्धि कोई शास्त्रीय अथवा शाब्दिक बात नहीं है, यह अस्तित्वगत है, अनुभूति जन्य है, ध्यान-साधना से जुड़ी है। स्वाध्याय व ध्यान में रमने वाले साधक इस अनुभूति को उपलब्ध होते हैं, उन्हें सत्य के दर्शन होते हैं; जहां कोई आग्रह अथवा आरोपण नहीं, जहां सत्य का सूर्य अपनी पूरी गरिमा में जगमगाता है । जिस व्यक्ति ने सत्य की ऐसी समग्र अनुभूति की हो उस व्यक्ति के जीवन से अनीति और अपराध अपने आप विदा हो जाते हैं। यह क्रांति व्यक्ति के अंतस में घटित होती है; यह कोई आरोपित चरित्र की बात नहीं है ।
बाहर की मानो मत, भीतर की जानो । जिस दिन भीतर की जानने लगोगे, उस दिन बाहर की मानने की जरूरत ही नहीं रहेगी। और ऐसा नहीं है कि उस घड़ी में तुम अपराधी हो जाओगे | ऐसा भी नहीं है कि उस घड़ी में तुम समाज विपरीत हो जाओगे । ऐसा भी नहीं कि उस घड़ी में तुम सारी मर्यादाएं तोड़ दोगे, लेकिन अब मर्यादाएं नए ढंग से पूरी होंगी। अब तुम्हारे अपने अनुभव से पूरी होंगी। अपना अपना सच
तुम अब भी वही अपने को करते हुए पाओगे जो वस्तुतः शुभ है, लेकिन अब समाज की धारणाओं के अनुसार नहीं, अब परमात्मा को अपने में बहने दोगे । कभी-कभी ऐसा होता है कि जो इस घड़ी में अशुभ मालूम होता है वह आगे की घड़ी में शुभ हो जाता है। ऐसी प्रतीति जब गहन हो जाती और व्यक्ति समर्पित हो जाता समष्टि को तब जीवन में परम क्रांति का क्षण आता । इस आमूल क्रांति को ही धर्म कहते हैं ।
चाणक्य का सूत्र
सत्य के बारे में चाणक्य के सूत्र निम्न प्रकार से हैं :-
“नास्ति सत्यात्परं तपः”
सत्य से बढ़कर तप नहीं है। ईमानदारी, परिश्रम तथा सबके भले में अपना भी भला समझना ही सत्य है। यही सबसे बड़ी तपस्या है। ऐसा करना या समझना सब के वश की बात नहीं है, जो मनुष्य ऐसा कर सकता है, वही सबसे बड़ा तपस्वी है।
“सत्यं स्वर्गस्य साधनम् “
सत्य ही स्वर्ग का साधन है। किसी भी वस्तु को पाने के लिए साधनों (उपकरणों, औजारों या सामान) की आवश्यकता पड़ती है। स्वर्ग को प्राप्त करने का साधन यह सत्य ही है।
“सत्येन धार्यते लोक”
सत्य द्वारा ही लोक धारण किया जाता है। सत्य पालन करने से; ईमानदारी, परिश्रम, परोपकार आदि से ही समाज सुखी रह सकता है। यदि समाज में ये गुण न रहे तो वह समाज, समाज न रहकर जंगल बन जाता है। अर्थात् सत्य ही समाज को धारण करता है। अपना अपना सच
“नानृतात्पातकं परम्”
झूठ से बढ़कर पाप नहीं है । सत्य को छोड़कर असत्य अर्थात् झूठ, बेईमानी, दुराचार, आलस्य आदि को अपनाना सबसे बड़ा पाप है। इनका आचरण करने से मनुष्य केवल अपना ही बुरा नहीं करता, बल्कि सारे समाज और देश को भी हानि पहुंचाता है ।।
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