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मनुष्य अपराधी क्यों बनता है ?

मनुष्य अपराधी क्यों बनता है ? – जिनके बचपन को कत्ल किया गया वो बन गए कातिल

नुष्य अपराधी क्यों बनता है ? ये एक ऐसा सवाल है जो हम जो हम लोगों के मन में अक्सर आता है और हम लोगों को झकझोर कर रख देता है। चलिए आज इसी पर विस्तार से बात करते हैं और जानने का प्रयास करते हैं कि  मनुष्य अपराधी क्यों बनता है ?  और क्या सच में जिनके बचपन को कत्ल किया गया वो आगे चल कर कातिल या हत्यारे या अपराधी बन गए या इसकी कोई और वजह हो सकती है।

मनुष्य के अपराधी बनने के कारण

हर इंसान के भीतर एक शैतान होता जिसे अगर हम जगाना चाहते हैं तो वो तभी जागता है । हम चाहें तो उसे जगाने के इंतजाम कर सकते हैं या खत्म करने के सामाजिक मूल्यों को ताकतवर बनाकर उसे सुला सकते हैं। हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना। निदा फाजली भी आदमी को पहचानने से इंकार करते हैं। हममें से बहुत से लोगों के साथ अक्सर ऐसा होता है कि हमारा कोई अपना जिसे हम जानने और पहचानने का दावा करते हैं, वह एका एक ऐसी हरकत कर बैठता है जिस पर विश्वास करना कठिन होता है। हम अपने आप से सवाल करते हैं कि क्या वह ऐसा कर सकता है? ऐसी घटनाएं हमारे आसपास रोज घटित होती हैं।                            (मनुष्य अपराधी क्यों बनता है ?)

एक लड़की महाराष्ट्र पोलिस के साथ मुठभेड़ में मारी जाती है। कहा जाता है कि वह एक आतंकवादी है, उसके दोस्त, रिश्तेदार कोई भी यह मानने को तैयार नहीं थी, लेकिन जब यह बात साबित हो जाती है तो उस लड़की के माता-पिता तक आश्चर्यचकित रह जाते हैं, आखिर एक सीधी सी लड़की ऐसे रास्ते पर कैसे चल सकती है। वर्जीनिया विश्वविद्यालय हत्याकांड का आरोपी भी काफी शर्मीला था और लोगों को देर तक यह विश्वास नहीं हुआ कि वह ऐसा कर सकता है। ऐसे सैकड़ों मामले सामने आते हैं और हमारी आंखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं कि एक साधारण सा दिखने वाला इंसान अपराधी बन जाता है। ऐसा क्यों होता है कि वजह की पड़ताल करने के लिए मनोविज्ञान की गहराइयों को खंगालना होगा। निश्चित रूप से इन प्रश्नों के जवाब यहीं मिलेंगे।

अंदर का शैतान

मनोविज्ञान के अनुसार हममें से हरेक के व्यक्तित्व के बहुत से पहलू होते हैं। मोटे तौर पर इन्हें अच्छे और बुरे में विभाजित किया जा सकता है। अंदर का शैतान हरेक आदमी में छुपा बैठा होता है। यह हमेशा उचित परिस्थितियों का इंतजार करता है और जैसे ही परिस्थितियां अनुकूल होती हैं, यह बाहर निकल आता है। हम लोग अपराध जैसे भारी-भरकम शब्द को समझने में भूल करते हैं। हमारी निगाह में हत्या, डकैती और नकबजनी ही अपराध है। अपराध मनोविज्ञान ऐसा नहीं मानता। वह मानता है कि हममें से प्रत्येक के अंतर्मन में एक अपराधी करवटें बदल रहा है।

इस बात को समझने के लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। आप अपना उदाहरण ही ले सकते हैं, आपके बॉस आज ऑफिस नहीं आए हैं जैसे ही आपको यह मालूम चलता है आपके भीतर का शैतान आपको कहता है आज काम न भी करें तो चलेगा या ऐसा करते हैं कि आज घर जल्दी वापस चलते हैं। आपके काम न करने से या जल्दी घर जाने से कुछ भी नहीं बदलने वाला, लेकिन फिर भी आप ऐसा करते हैं। ऐसा ही कुछ तब देखने में आता है, जब बच्चों से भरी कक्षा शिक्षक की अनुपस्थिति में गला फाड़ कर शोर करती है ऐसा करने में उन बच्चों को आनंद आता है। उनके अंदर का शैतान स्वतंत्रता का लाभ उठा लेना चाहता है।                                                  (मनुष्य अपराधी क्यों बनता है ?)

हम लोग बच्चों को शैतान मानते हैं। आखिर बच्चे शैतानी क्यों करते हैं क्योंकि उन पर सामाजिक बंधन की पकड़ ढीली होती है या समाज उन्हें मासूम मानकर विशेष छूट देता है। उनके अंदर का शैतान इसी छूट का लाभ उठाता है और बच्चों को शैतानियों में आनंद आने लगता है, लेकिन अच्छी बात यह है कि यह शैतान बच्चा मासूम होता है और नुकसान पहुंचाने की इसकी क्षमता न के बराबर होती है। समस्या तब पैदा होती है जब बच्चे के अंदर बैठे शैतान की उम्र बच्चे से ज्यादा हो जाए। इसका सीधा सा मतलब है कि बच्चे की मासूमियत खत्म हो गई है। ऐसी अवस्था में यह राक्षस आजाद हो जाता है और बाल अपराधी अस्तित्व में आते हैं।

काल्पनिक अहम

मनोविज्ञान अपराधी व्यक्तित्व के सिद्धांतों से भरा पड़ा है। एक सिद्धांत कहता है कि अपराध का संबंध व्यक्ति के वास्तविक व्यक्तित्व और उसके द्वारा काल्पनिक व्यक्तित्व के बीच भारी अंतर के कारण फली भूत होता है। वास्तविक व्यक्तित्व आदमी की वह स्थिति है जिसे वह वास्तविक दुनिया में जीता है और काल्पनिक व्यक्तित्व आदमी के महत्वाकांक्षा से जुड़े स्वरूप का प्रतिनिधि होता है। एक साधारण व्यक्ति किसी राष्ट्र का प्रमुख बनना चाहता । साधारण व्यक्ति होना उसका वास्तविक अहम है, जबकि राष्ट्रप्रमुख बनना उसका काल्पनिक अहम।

यह अंतर ही व्यक्ति को अपराध करने के लिए प्रेरित करता है। हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाह इसके उपयुक्त उदाहरण हैं। इन्होंने सत्ता प्राप्त करने के लिए वह प्रत्येक काम किया जो अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। अधिकतर अपराध धन के लिए किए जाते हैं क्योंकि अपराधी के मन के काल्पनिक अहम में एक अमीर व्यक्ति की छवि अंकित है। वह जल्दी से जल्दी अमीर बन जाना चाहता है और अपनी इस महत्वाकांक्षा को वह किसी भी तरीके से पूरी करना चाहता है।                              (मनुष्य अपराधी क्यों बनता है ?)

बदले की भावना

अपराध की सिर्फ एक ही वजह नहीं होती इसलिए कोई भी एक सिद्धांत इसकी पूर्ण व्याख्या में असफल रहता है। हममें से अधिकांश सिने प्रेमी अक्सर फिल्में देखते समय भावुक हो जाते और खलनायक को सजा देने के लिए व्याकुल हो उठते हैं। अगर हीरो की जगह मैं होता तो उसे बुरी मौत देता कि कोई ऐसा काम करने की हिम्मत नहीं करता, यह लाइनें अक्सर सिनेमा से बाहर निकलते लोगों के जबान से निकलती है। उस समय वे लोग अपने जेहन में खलनायक को नितांत अमानवीय तरीके से मार रहे होते हैं और इस काम के लिए वे दुर्दात से दुर्दात अपनाते हैं। मनोविज्ञान मानता है किसी-किसी व्यक्ति में यह बदले की भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि वह अपराध या हिंसा के लिए प्रेरित हो जाता है। ऐसी परिस्थितियां अंदर के शैतान को खाद-पानी प्रदान करती हैं और वह शक्तिशाली होता चला जाता है।

सामाजिक नियमों का कमजोर होना

सामाजिक विज्ञानों में मानव और पशुओं में एक अंतर निर्धारित किया गया है। मानव शास्त्री क्रोबर कहते हैं कि “मानव के पास संस्कृति है और सिर्फ इसी आधार पर वह पशुओं से अपने आप को अलग कर पाता है।” प्रत्येक मनुष्य इन्हीं सांस्कृतिक नियमों के इर्द-गिर्द घूमता है और समाज उस पर यह दबाव बनाए रखता है कि वह नियमों के विरुद्ध कोई काम न करे। नियम उल्लंघन के लिए सजा की भी व्यवस्था प्रत्येक समाज करता है और नियमों का पालन करने पर इनाम भी प्रदान करता है। हमारे भीतर का शैतान इन्हीं सामाजिक नियमों की वजह से अपना सिर नहीं उठा पाता। यह दबा कुचला शैतान वहीं मुखर हो पाता है जहां सामाजिक नियम कमजोर पड़ जाते हैं या जहां समाज नाम की संस्था का नहीं करती। यही कारण है कि अपराध अक्सर सूनी बंद गलियों  और रात के अंधेरों में होता है क्योंकि वहां यह सबसे ज्यादा शक्तिशाली होता है और इस पर अंकुश लगाने वाली ताकतें ऐसी  जगहों पर आकर कमजोर हो जाती हैं।

रोल मॉडल

समाज शास्त्र में व्यक्तित्व निर्धारण संबंधी सिद्धांत हैं संदर्भ समूह का सिद्धांत। इसके अनुसार आदमी किसी न किसी समूह से प्रभावित होता है और उसके जैसा ही बनने का प्रयत्न करता है। यह काफी कुछ रोल मॉडल के नजदीक है, लेकिन इस सिद्धांत में रोल मॉडल एक व्यक्ति न होकर पूरा समूह होता है। यह सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी। उन्नीसवीं सदी के मध्य में पाश्चात्य देशों के बच्चों में काऊ बॉय संस्कृति के प्रति आग्रह उत्पन्न हो गया। बच्चों के रोल मॉडल अपराधी किस्म के काऊ बॉय हो गए थे, जो फुर्ती से दनादन गोलियां दागते थे और अपने अजीबो गरीब पहनावे के कारण स्टाइल आइकॉन बन गए थे। भारतीय बच्चे भी आज मुन्ना भाई की जबान बोलते नजर आते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह पूरी तरह आपके व्यक्तित्व के प्रबल पक्ष पर आधारित होता है कि आप किस तरह का संदर्भ समूह चुनते हैं। व्यक्ति में जो पक्ष प्रबल होगा, संदर्भ समूह भी ठीक उसी तरह का होगा।

आनंद आना

यह जरूरी नहीं कि आदमी को हमेशा यह मालूम हो कि वह अपराध कर रहा है। दरअसल वह अपराध को परिभाषित करने की स्थिति में ही नहीं होता है। ऐसी श्रेणी के अपराधी एक मामूली से पेन की चोरी से लेकर हत्या जैसे गंभीर अपराधों में लिप्त रहते हैं। एक वाकया इस बात को समझाने के लिए जरूरी हो जाता है। एक मानव बम अपने मिशन को पूरा करे इससे पहले ही पकड़ लिया जाता है। उसे नहीं मालूम वह यह क्यों करना चाहता है। उसके जवाब इतने ज्यादा अजीब थे कि पुलिस अधिकारी किसी निष्कर्ष पर आखिर तक नहीं पहुंच सके।

दरअसल अलग राष्ट्र की मांग करने वाला यह अलगाव वादी अपने आक्रोश का कोई ठोस कारण जानता ही नहीं था। ऐसे ही हममें से बहुत से लोगों को चोरी करने में आनंद आता है। हम इस आनंद के पीछे छुपे कारण को नहीं जानते हैं, लेकिन मनोविज्ञान जानता है। यह एक तरह की ग्रंथि होती है जो सभी में पाई जाती है, लेकिन कुछ लोगों में यह ज्यादा प्रबल होती है और उनका अचेतन उन्हें बार बार इस काम के लिए प्रेरित करता है। यह कामना पूर्ति ठीक उसी तरह का आनंद प्रदान करती है जैसे आनंद का अनुभव एक भूखा आदमी भोजन मिलने के बाद करता है। इस परेशानी के तार फिर से हमारे व्यक्तित्व से आकर जुड़ते हैं।                                (मनुष्य अपराधी क्यों बनता है ?)

उपयुक्त वयक्ति और परिस्थितियां

कुछ शोधों ने खासकर चिकित्सा विज्ञान में हुए खोजों में यह पाया कि अपराधी होना या बुरा पक्ष ज्यादा प्रबल होना काफी हद तक गुण सूत्रों पर निर्भर करता है यानी अपराध भी गुण सूत्रों पर आधारित हो गए हैं, लेकिन यह प्रारंभिक आकलन है और इस दिशा में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना अभी जल्द बाजी होगी। अपराधियों पर हुए सर्वे यह बताते हैं कि उनमें से अधिकांश की शारीरिक संरचना और सोचने का तरीका काफी कुछ मिलता जुलता है। अधिकतर शारीरिक रूप से बलिष्ठ थे और मानसिक रूप से कमजोर थे। इसका मतलब शैतान भी उपयुक्त व्यक्ति और परिस्थितियों का चुनाव करता है।

मूल भावना

 मूलभावना को अपने के बहुत से उदाहरण तो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हैं । किसी संबंधी को आप उपहार देना चाहते हैं। उपहार का चयन करते वक्त अंजाने में ही आप की मूलवृत्ति यह गणना कर लेती है कि आपको उसके बदले क्या मिलने वाला है और यह वापस मिलने की संभावना ही दिए जाने वाले उपहार की कीमत निर्धारित करता है। यह उदाहरण भले ही अजीब लगे, लेकिन यह सच है। एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए महंगे से महंगा उपहार खरीदना चाहता है क्योंकि उसके बदले मिलने वाला प्रेम का अभिदान ज्यादा मूल्य रखता है।

इसी तरह आपके किसी संबंधी के विवाह अवसर पर दिया जाने वाला उपहार अक्सर इस बात पर निर्भर करता है कि आपको क्या मिला था या इसके बदले क्या मिलने की उम्मीद है? यह भाव हमारी मूलभावना से जुड़ा हुआ होता है। मनुष्य जब संकट में होता है तब यही भावना बचाव के लिए आक्रमण करने के लिए प्रेरित करतो है। समाज और संस्कृति ने सदैव यही प्रयत्न किया है कि वह मानव की पाशविक वृत्तियों पर लगाम लगाए और उसे ज्यादा बेहतर कार्यों की दिशा में प्रेरित करे, लेकिन इन भावनाओं को जब आवश्यकता से अधिक पोषण मिलता है यह स्वयं मानव के लिए ही विनाशकारी साबित हो जाती है और इतिहास ने इसे बार-बार साबित किया है।

मानसिक बीमारी

हमारी मूलभावनाओं को किसी मानसिक बीमारी के रूप में तब तक नहीं देखा जाता जब तक यह नियंत्रण से बाहर न हो जाए। यह हमारे व्यक्तित्व का आवश्यक अंग है और इसके बिना आदमी की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कोई भी मनुष्य न पूरी तरह से अच्छा हो सकता है और न ही पूरी तरह बुरा। मानव व्यवहार सदैव दोनों पक्षों का मिश्रण रहा है। यह मूलवृत्ति हमेशा बुरी नहीं होती। इसे सही दिशा में मोड़कर इसका श्रेष्ठ उपयोग किया जा सकता है। इसका अच्छा उपयोग खेल प्रतिस्पर्धाओं के दौरान देखा जा सकता है। किलर इंस्टिकंट या मारक क्षमता इसी भाव के कारण उत्पन्न होता है। इसी भावना के कारण उत्पन्न क्षमता की वजह से ही खिलाड़ी खेल जीतने के लिए प्रेरित होता है और इसके लिए अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करता है। युद्ध के दौरान यही भावना निर्धारित करती है कि कौन सा पक्ष विजयी होगा।

बचपन में घटित  मानसिक दुर्व्यवहार

क्या कोई आदमी एक साधारण मनुष्य से ऐसे हत्यारे में तब्दील हो सकता है जो नितांत अमानवीय तरीके से दूसरों को मारता है। यह संभव नहीं है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि ऐसे हत्यारों की परेशानी का वास्तविक कारण उनके बचपन में ही छुपा रहता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि सभी हत्यारे बिखरे हुए परिवारों से ही संबंध रखते हैं। अधिकतर हत्यारों की उम्र 20 से 35 के बीच पाई गई या इसी उम्र के दौरान वे अपने सबसे भयानक रूप में उभरे। रोचक तथ्य यह है कि इन सभी का बुद्धि कौशल आश्चर्यचकित करने वाला था। कुछ की योजनाएं इतनी ज्यादा प्रभावशाली होती थी कि पुलिस और डिटेक्टिव एजेंसियां अंदाजा लगाने के सिवा कुछ नहीं कर पाती थीं और ये लगातार हत्याएं करते जाते थे।

ये सभी काफी कुशाग्र थे। ऐसे 36 हत्यारों के एक अध्ययन के दौरान 7 का ही आई क्यू 90 से कम पाया गया । ज्यादातर ने औसत से ज्यादा अंक प्राप्त किए और 11 ने तो अत्यंत ऊंचा स्थान प्राप्त किया। यही उर्जा अगर सकरात्मक दिशा में लगती तो इनकी कहानी कुछ और होती। क्रिमिनल पर्सनेलिटी रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत इन अपराधियों के पारिवारिक इतिहास का अध्ययन किया गया। इनमें से आधे से ज्यादा के अभिभावकों का कोई न कोई आपराधिक इतिहास रहा था। 70 प्रतिशत से ज्यादा के परिवार किसी न किसी तरह शराब खोरी या न किसी नशे से संबंध रखते थे। लगभग प्रत्येक अपराधी को अपने बचपन में किसी न किसी तरह के मानसिक दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा था। सभी की मानसिक स्थिति इतनी खराब थी कि उन्हें कभी न कभी किसी मनोचिकित्सक की मदद लेनी पड़ी।

घर बच्चे की पहली पाठशाला होती है और मां पहली अध्यापिका । बच्चे पर 6 से 8 वर्ष की उम्र के दौरान सबसे ज्यादा प्रभाव अपनी मां का पड़ता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इसी दौर में एक बच्चा प्रेम भावनाओं और रिश्तों को पहचानना और उन्हें समझना शुरू करता है। इसी समय उसके व्यक्तित्व में गुणों का अंकुरण होता है। शोध में देखा गया कि इन कातिलों के इस उम्र में अपनी मां के साथ जो संबंध थे, उन्हें मधुर तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। इस दौर में इन माओं का अपनी संतान के प्रति रवैया लगभग नकारात्मक रहा। इस अवस्था में जहां ये एक ओर अपने परिवार के प्रेम से वंचित थे वहीं दूसरी ओर इनमें से 70 प्रतिशत हत्यारों को इसी उम्र के दौरान अपने किसी निकट संबंधी द्वारा यौन दुर्व्यवहार का सामना भी करना पड़ा था ।

समाज से मोह भंग होना

 ऐसे अपराधियों में नकारात्मक व्यवहार की शुरुआत 8 से 12 वर्ष के बीच होती है । एक बच्चे को आठ साल की उम्र तक मां की जरूरत होती है वहीं दुसरी ओर किशोरावस्था में एक लड़के को अपने पिता के प्यार, संरक्षण और अनुशासन की जरूरत सबसे ज्यादा होती है। यह अवस्था व्यक्तित्व निर्माण का आधारभूत दौर होता है, लेकिन इनमें से ज्यादातर के पिता उम्र के इस पड़ाव पर उनके जीवन परिदृश्य से गायब हो चुके थे और जो बचे थे उनका एक ही काम था, अपने बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा बुरा सलूक। इन हत्यारों में से लगभग प्रत्येक को जीवन के इस दौर में अकेलेपन का सामना करना पड़ा।                        (मनुष्य अपराधी क्यों बनता है ?)

अकेलेपन और एकाकी जीवन का यह मतलब बिल्कुल नहीं निकाला जाना चाहिए कि यह शर्मीले और अंतर्मुखी थे। कुछ के विषय में तो ये आकलन सत्य हैं, लेकिन ज्यादातर बहुत अधिक मिलनसार और बातें करने में माहिर होते हैं। इस अवस्था में उनके व्यक्तित्व को बुरी तरह दबाया गया। वे हर चीज से नफरत करने लगे। मनोविज्ञान में इस अवस्था को मोहभंग की अवस्था कहते हैं। इस हालात में व्यक्ति या तो अपनी जान ले लेता है या फिर वो दूसरों की जान का दुश्मन बन जाता है। इस शोध के सभी बिंदु उन परिस्थितियों की पड़ताल करते हैं जिन्होंने उनकी मानसिक स्थिति बिगाड़ कर रख दी। वे यह महसूस करने लगे कि वो कभी अपनी सामाजिक पहचान नहीं बना पाएंगे। उन्हें इस समय सबसे ज्यादा सकारात्मक मानसिक आधार की जरूरत थी। जो उनसे कोसों दूर था।

बच्चों को अपराधी बनने से रोकने के उपाय  

इस समस्या पर समाज शास्त्रियों की अपनी राय है। वे इस समस्या के कारणों में सिर्फ परिवार तक ही सीमित नहीं रहना चाहते। वे कुछ और सामाजिक कारकों को इस समस्या का महत्वपूर्ण तत्व मानते हैं। इस विषय पर शोध करने वाली सूसान स्मिथ कहती हैं यह आदमी के अंदर अच्छी प्रकृति का बुरी प्रकृति से युद्ध है। हमारी संस्कृति के कुछ सवृत्तियों को खाद-पानी प्रदान करते हैं। टेलीविजन और सिनेमा उनमें से एक हैं। वे अपनी बात में आगे लॉजिस्ट एल्बर्ट बेंडूरा के प्रयोगों का उदाहरण देती हैं। इन प्रयोगों ने यह साबित किया है कि बच्चों पर हिंसा से भरे दृश्यों का गलत प्रभाव पड़ता है। इनसे प्राप्त परिणामों को और मीडिया माध्यमों जैसे वीडियो गेम्स, कम्प्यूटर गेम्स, सिनेमा और संगीत पर लागू किया जा सकता है।

सूसान इन समस्याओं की दूसरी बड़ी वजह मानव मस्तिष्क को ही मानती हैं। उनके अनुसार कुछ मनुष्यों के दिमाग की केमिस्ट्री ही ऐसी बन जाती है कि वे हिंसक हो जाते हैं। बहुत से वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि हिंसा का संबंध मानव मस्तिष्क के अग्रभाग से होता है। इस भाग की सक्रियता ही यह निर्धारित करती है कि व्यक्ति किस सीमा तक हिंसक होगा। कई बार यह देखने में आया है कि इस भाग में बड़ी चोट लगने के बाद व्यक्ति हिंसक हो उठता है। सूसान स्मिथ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए इन तत्वों में संस्कृति को भी जोड़ती हैं। वे कहती हैं कि कुछ संस्कृतियां प्रकृति से ही हिंसक होती हैं। हम आज उसी संस्कृति का हिस्सा बनते जा रहे हैं। हमारे बच्चे रोज अपने खेल में खलनायकों को मारते हैं। आप उनके मारने के तरीके पर गौर कीजिए। बच्चे ज्यादा से ज्यादा घातक तरीके अपना रहे हैं। सीरियल किलर्स की उम्र घट रही है। जेसी पॉमेरी को जब गिरफ्तार किया गया उसकी उम्र महज 14 साल थी। उसने एक चार साल के बच्चे की हत्या कर दी थी। उसे एक साल के लिए बाल सुधार गृह भेज दिया गया।                                          (मनुष्य अपराधी क्यों बनता है ?)

बाहर आते ही उसने फिर से एक 10 साल की लड़की और एक चार साल के बच्चे की हत्या कर दी। जब उससे इस बारे में पूछा तो उसका जवाब था कि शायद मैंने ही यह किया है। वीजी बॉस्कट जब पकड़ा गया तब उसकी उम्र सिर्फ 15 साल थी और उसके अपराधों की संख्या थी लगभग दो हजार। एडमंड कैम्परने साल की उम्र में ही अपने दादा-दादी की हत्या कर दी। इस बात को लेकर उसके मन में कोई पछतावा भी नहीं था। 14 साल के जोशुआ फिलिप ने अपने आठ साल के पड़ोसी की हत्या कर दी और उसकी लाश अपने बाथरूम में छुपा दी। एक 14 साल के चीनी लड़के ने अपने पूरे परिवार की हत्या कर दी क्योंकि उसे लगता था कि उसके परिवार के लोग उसका ख्याल ठीक तरह से नही रख पा रहे हैं। जब पुलिस उसके घर पहुंची तब वह टेलीविजन पर कार्यक्रम का लुत्फ उठा रहा था। क्या इन हालात के लिए इनका परिवार उत्तरदायी नहीं था?  इन सबका बचपन क्या किसी नर्क से कम था?  इस नर्क को भोगने के बाद क्या कोई भी अपनी मानसिक स्थिति ठीक रख सकता है ? यह सब परिस्थितियां क्या किसी भी हत्यारे पक्ष रखती हैं? इन सब प्रश्नों का उत्तर हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार में ही छुपा हुआ है। मनोवैज्ञानिक लगातार इस विषय पर शोध कर रहे हैं और इन प्रश्नों के जवाब भी तलाशे जा रहे हैं। कातिलों को फांसी पर लटका देने से वह समस्या हल नहीं होने वाली। इसके लिए हमें अपने सामाजिक ताने-बाने में ही परिवर्तन करने होंगे। टेड बंडी ने मरने पहले एक बयान दिया था “हम जैसे हत्यारे आपके बच्चे होते हैं, हम जैसे कातिल आपके पति होते हैं और आप अपने बच्चों का बचपन खराब करते रहिए हम जैसे हत्यारे तैयार होते रहेंगे।।”

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