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बच्चों को मोबाइल और टीवी से नुकसान

बच्चों को मोबाइल और टीवी से नुकसान – क्या हम बच्चों को स्मार्ट बना रहे हैं या और कुछ ?

जिंदगी और जीवनशैली को बेहतर बनाने की कभी खत्म न होने वाली दौड़ में शामिल, हम अपने बच्चे को वह सब उपलब्ध कराने पर केंद्रित हैं जो यह सुनिश्चित करने में सहायक हो कि वह बाकी साथियों में पीछे नहीं हैं, और हमारा बच्चा अपने समय के साथ चलता आधुनिक बच्चा है। इस कोशिश में उसके आगे सूचनाओं का भंडार खुला पड़ा है। उसके और इस चका चौंध भरे संसार के बीच एक बटन दबाने भर का फासला है। उसने यह बटन दबाया नहीं कि उसका कोमल मन मोहने और उसके अपरिपक्व मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ने के लिए बाजार का पूरा तंत्र खड़ा है । ऐसे में हमारे बच्चे का बचपना कहीं मर सा जाता है । आज हम जानते हैं कि बच्चों को मोबाइल और टीवी से नुकसान  हैं और क्या हम बच्चों को स्मार्ट बना रहे हैं या और कुछ ?

बचपना खोते बच्चे

हमारे बच्चे अपना बचपना कैसे वक्त से पहले ही खो रहव हैं , हम इसे इन दो उद्धाहरणों से समझते हैं –

उदाहरण 1 –

मां के साथ शॉपिंग के लिए आया आदित्य आइसक्रीम खाते हुए मुंह में आई किश मिश निकालकर अपने बड़े भाई से बोला, ”आई डोन्ट लाइक किशमिश बिकॉज, किस तो  मिस ! और दोनों हंसने लगे। 7 वर्षीय आदित्य और 9 वर्ष के उत्सव की बातें सुनकर मम्मी चौंक गई। जब उसने जोर देकर पूछा कि यह सब उन्होंने कहां से सीखा तो वह तपाक से बोला, किस यानी टी.वी. में एक लड़का लड़की को करता है और मिस यानी मिस ! बच्चे तो सहजता में यह बोल गए, लेकिन दीपाली को लगा जैसे किसी ने उसे झकझोर दिया हो ।

उदाहरण 2 –

एक प्रतिष्ठित स्कूल में छठी क्लास की क्लासटीचर  को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ जब उसने क्लास से बाहर निकलते हुए किसी बच्चे को फुस फुसाते सुना, मैम कितनी हॉट एंड सेक्सी लग रही हैं। यह उस बच्चे द्वारा कहीं पर किसी से सुनी टिप्पणी मात्र थी या फिर वह जो कह रहा था उसका मतलब भी जानता है? क्या वह हॉट एंड सेक्सी का अर्थ समझता है? टीचर सोच में पड़ गई।

यह बीसवीं सदी की उल्लेखनीय उपलब्धियों में से एक है कि हमने अपने बच्चों को समय से पहले जवान बना दिया, अब से लगभग एक दशक पहले रॉबर्टसन डेविस का यह कथन समय बीतने के साथ और भी प्रासंगिक हो गया है। कि “बच्चे के शरीर में वयस्क दिमाग दर्शाते उदाहरण लगातार बढ़ रहे हैं, उसके चेहरे पर मासूमियत की चमक फीकी पड़ती जा रही है। क्या वजह है कि वे बच्चे होते हुए बड़ों जैसा व्यवहार कर रहे हैं?”

बच्चों के समय से पहले बचपना खोने के कारण

आखिर हमारे बच्चे क्यों समय से पहले अपना बचपन खोते जा रहे हैं ? इसे समझने के लिए यहां हम कुछ कारण पेश कर रहे हैं –

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बच्चों के बीच अपना उत्पाद बेचना आज अपने आप में एक निपुण कला बन गया है। जिसके लिए इन दिनों चीन के साथ-साथ भारत का नवजात बाजार विश्व अर्थव्यवस्था को अछेदित संपत्ति उपलब्ध कराने के अवसर के लिए पहचाना जा रहा है। आंकड़ों पर नजर डालें तो भारत में बच्चों का बाजार लगभग 20,000 करोड़ रुपए का है। साथ ही निकट भविष्य में इस उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में 25 प्रतिशत सालाना की दर से विकास की अपेक्षा है। इस उपभोक्ता जगत के प्रलोभन में प्रवेश के समय बच्चे की उम्र क्या हो, यह बहस का विषय है। साबित किया जा चुका है कि दो वर्ष का बच्चा किसी ब्रांड का लोगो या प्रतीकचिह्न पहचान लेता है।

हालांकि इस निष्कर्ष पर पहुंचने के दौरान अनुपात में, इस उम्र के 2% से 6% बच्चे ही ब्रांड के नाम को लिखित रूप में पहचान पाए। उन बच्चों की अनुपात संख्या कहीं अधिक 14% से 97% थी जो ब्रांड के लिखित रूप के बजाय उसका प्रतीकचिह्न देखकर उसकी सही पहचान कर सके। प्रयोग के दौरान यह रोचक बात रही कि प्रतीकचिह्न के रूप में भी बच्चे ब्रांड के सही नाम को पहचानने की बजाय यह कहते नजर आए कि उन्होंने उसे पहले कहीं देखा है ! दरअसल ये प्रतीक चिह्न समझ में न होकर उनकी याद दाश्त पर अंकित थे। जिसकी वजह थी इनका बच्चों के आगे बार-बार दोहराया जाना।                                                                      (बच्चों को मोबाइल और टीवी से नुकसान – क्या हम बच्चों को स्मार्ट बना रहे हैं या और कुछ ?)

आइकन किड्स एंड यंग, जर्मनी के एक्सल डैमलर ने अपने शोध में दर्शाया कि बच्चे स्कूल जाने की उम्र से कहीं पहले ब्रांड का लोगो देखने पर उसे याद कर सकते हैं। डैमलर का तर्क था कि बच्चे में 8 या 9 वर्ष की उम्र से पहले किसी उत्पाद को निराकार ब्रांड मूल्य प्रदान करने की संज्ञानात्मक क्षमता नहीं होती। इससे छोटे बच्चे जब किसी विज्ञापन को पहचानते हैं तो इसलिए कि वे विज्ञापन की प्रत्यक्ष आकृतियों को देखते हैं, जैसे कि किसी विज्ञापन में विभिन्न चरित्रों का होना या फिर टेलीविजन पर चल रहे कार्यक्रम से उसकी अवधि का कम होना। वे उस विज्ञापन को उसके अर्थ, उद्देश्य या कारण की समझ नहीं पहचानते। उनके पास उस विज्ञापन का मूल्यांकन करने की समझ नहीं होती। किसी विज्ञापन या कार्यक्रम का उद्देश्य, उसके साथ प्रचलित सेलिब्रिटी अनुमोदन या फिर उसमें इस्तेमाल हास्य को समझने के लिए इससे कहीं ज्यादा क्षमता की जरूरत होती है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में आप उन्हें जो दिखाएंगे वे बिना समझे उसी को याद करते जाएंगे।

बचपन के व्यवसायी करण को लेकर आज दुनियाभर में चर्चाएं व वाद-विवाद हैं। आज का बच्चा एक ऐसे संसार में पल-बढ़ रहा है जो बाजार, व्यवसाय व बेचने की तकनीकों से अटा पड़ा है। ऐसे में चिन्ता जनक बात यह है कि यह बाजार अपनी तमाम बेचने की तकनीके लिए पारंपरिक माध्यमों को पार कर जीवन के हर हिस्से में शामिल हो चुका है। क्या यह बच्चा संदेश व सूचनाओं की इस आंधी का सामना करने के लिए तैयार है? क्या हम बच्चे की मासूमियत को भ्रष्ट कर उसके भीतर प्राप्त करने की इच्छा पैदा कर, एक नैतिक मूल्य रहित उपभोक्ता वादी समाज की रचना कर रहे हैं ?                                  (बच्चों को मोबाइल और टीवी से नुकसान – क्या हम बच्चों को स्मार्ट बना रहे हैं या और कुछ ?)

मैकडॉनल्ड की मार्केटिंग नीति इसे बखूबी समझाती है। विज्ञापन बार-बार दोहराता है कि खुश रहने के लिए जीवन में मैकडॉनल्ड की उपस्थिति जरूरी है। अनजाने शहर में नई जगह की मित्र हीनता  को नजदीक स्थित मैकडॉनल्ड के प्रतीक चिह्न की मौजूदगी खत्म करती है। इसके अलावा बब्बों में मैकडॉनल्ड का विशेष आकर्षण है हैप्पी मील के साथ मिलने वाला खिलौना ! उसे भूख नहीं है तो भी वह अभिभावक को यहां लाता है। वजह स्वाभविक है, उसे मिलने वाला खिलौना। और यही इस पूरी रणनीति को सफल बना देता है। और तो और इन खिलौनों को श्रृंखलाबद्ध किया गया है जो बच्चे में मौजूद इकट्ठा करने की प्रवृत्ति की ओर केन्द्रित है। यानी बाजार का काम पूरा हुआ । बच्चा इस तरह के विज्ञापन प्रचार की बारीकियां नहीं समझता। दर असल वह उसे उसके चेहरे से पहचानता है जिसे विज्ञापन जगत इतना दोहराता है कि उसे वह रट जाता है। बाजार यह बखूबी जानता है और बच्चे की इस मासूमियत का पूरा लाभ उठाने की नीतियां बुन रहा है।

टीवी और इंटरनेट

दुनिया पर के बच्चे अपने दिन का अच्छा खासा वक्त टेलीविजन के सामने बिता रहे हैं। भारत में भी बच्चों पर केंद्रित कार्यक्रम लिए चैनलों की कतार बढ़ रही है। एडेक्स सर्वे की नवंबर, 2006 की रिपोर्ट के के अनुसार भारत में 2005-2006 के अंतराल के बीच बच्चों के चैनलों में 16% बढ़ोतरी हुई है। इन पर प्रदर्शित कार्यक्रमों में तमाम विज्ञापनों के बीच भारतीय शो हैं जिनमें जीवन से बड़े दिखाए सुपर हीरो के साहसिक कारनामे हैं। इसके साथ ही हिन्दी में डब किए विदेशी शो भी प्रसारित किए जा रहे हैं। इसका सामाजिक पक्ष देखें तो विदेशी पृष्ठभूमि में तैयार किए ये शो बच्चों पर अपना प्रभाव छोड़ते नजर आते हैं।

पूर्व में एक चैनल  प्रसारित शिन चैन का उदाहरण प्रसंग वश है। कि  पृष्ठभूमि में जन्मे कार्टून किरदार क्रेयॉन शिन चैन के परिवार में उसके 60 के दशक के जापान में जन्मे कार्टून किरदार क्रेयान शिन चैन के परिवार के अलावा उसकी मां मित्सी नोहारा, पिता हिरोशी नोहारा व उसका कुत्ता शिरो रहते हैं। कज़ामा, नैना मसाओ और सुजुकी उसके दोस्त हैं। इस एनीमेशन में जापान की समसामयिक सामाजिक स्थिति को दर्शाया गया है, जब जापान प्रगति व विकास के दौर से गुजर रहा था। संयुक्त परिवार की सदियों पुरानी परंपरा को तोड़कर एकल परिवार के नए ढांचे को जन्म देते लोग, अपने और अपने परिवार के लिए समय की कमी के कारण घटता आपसी प्यार, माता-पिता की बच्चों को समय, प्यार की जगह दौलत का अंबार देने की ख्वाहिश और उसके कारण रिश्तों का बदलता स्वरूप साथ ही धीरेधीरे बच्चों में कम होते संस्कार।                      (बच्चों को मोबाइल और टीवी से नुकसान – क्या हम बच्चों को स्मार्ट बना रहे हैं या और कुछ ?)

एनीमेशन में इस लोकप्रिय व मुख्य किरदार की बात करें तो शिन चैन एक 4-5 साल का बिगडैल बच्चा है। जिसके लिए अपनी मां को अपशब्द बोलना, उनकी बातें न मानना और उनसे अभद्र व्यवहार करना आम बात है। शिन चैन का पसंदीदा डायलॉग है, बच्चे चुराने वाली बुढ़िया, जो वह अपनी मां को कहता है। उसे अपने शिक्षकों को परेशान करने में मजा आता है। वह अपनी टीचर को कहता है अपनी शक्ल देखी है, कितना ज्यादा मेकअप थोप कर आती हो। जब भी वह अपनी टीचर के घर जाता है तो कहता है,ओहो घर इतना गंदा कर रखा है, अपना घर ऐसा रखोगी तो तुमसे शादी कौन करेगा। इसके अलावा क्लास डिस्टर्ब करने में उसे बेहद आनंद आता है। जब वह किसी खूबसूरत लड़की को देखता है तो कहता है, हाय बेबी मेरे साथ डेट पर चलोगी। इसी तरह की तमाम अभद्रता समेटे शिन चैन नाम इ इस एनीमेशन देशभर में जबर्दस्त लोकप्रियता प्राप्त की थी ।

बच्चों से उसके बारे में बात कीजिए तो उनके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान आ जाएगी और पता चलेगा कि उन्हें उसका एकएक डायलॉग रटा पड़ा है! 3 साल का मनी अपनी 9 वर्षीया बहन फेयरी समेत उत्साह के साथ जानकारी बांटता है- तुमको पता है जब शिन चैन की मां उसे मारती है तो वह हमेशा कहता है, बच्चे की जान लेगी क्या। मैं भी अपनी मां को यही बोलता हूं, जब भी वे मुझे मारती हैं। भाई-बहन का पसंदीदा डॉयलॉग है, शिन चैन मेरा नाम, शरारत मेरा काम। ‘मैं भी बोलती हूं फेयरी मेरा नाम, शरारत मेरा काम’ फेयरी तपाक से कहती है।

इसका एक उपाय है कि अभिभावक अपने बच्चों को जहां तक संभव हो इन चैनलों से दूर रखें। पिछले कुछ महीनों में कई बार हमारे स्कूल के बच्चों ने कुछ ऐसी शरारतें की है जो शिन चैन के किरदार से प्रेरित थीं। एक  मनोवैज्ञानिक इस बात का समर्थन करती हुई कहती हैं कि अब के बच्चों के बर्ताव में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। ‘”पहले बच्चे मां-बाप के सिखाए संस्कारों के अनुसार आचरण करते थे। मनोरंजन का साधन किताबें हुआ करती थीं और किरदार भी आदर्श हुआ करते थे। आज बच्चे चैनलों में दिखने वाले अपने पसंदीदा किरदार की तरह व्यवहार करते दिखते हैं। हद से ज्यादा हिंसा दिखाने वाले इन कार्टून चैनलों को देखकर उनमें न सिर्फ हिंसक प्रवृत्ति बढ़ी है बल्कि वे शिन जैसे किरदार को  अपना आदर्श मानने लगे हैं। “

पहले के बच्चे टीवी. सिनेमा और अपने आस-पास के वातावरण से जो कुछ सुनते और सीखते थे उसे उजागर करने की कोशिश नहीं करते थे। वे मन में दबाकर रखते थे और उन्हें अभिभावक के साथ बांटने में हिचकते थे। आज के बच्चे स्पष्टवादी हैं। वे खरा बोलते हैं वोंकि अभिभावक खुद उन्हें अपने मन की बात बोलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। दिल्ली के सीताराम इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड रिसर्च के मनोचिकित्सक अमित सेन कहते हैं कि “क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ उन्हें उस शब्दावली का इस्तेमाल करने की अनुमति प्रदान करना है जो बच्चों के शब्दकोश का हिस्सा नहीं है? वे टीवी और फिल्मों में जो सुनते हैं उसे दोहराते हैं। कई बार उन्हें उन शब्दों के अर्थ पता नहीं होते और अक्सर वे अपनी बातों में बड़ों जैसा प्रभाव उत्पन्न करने के लिए उन शब्दों का इस्तेमाल कर रहे होते हैं”।                                 (बच्चों को मोबाइल और टीवी से नुकसान – क्या हम बच्चों को स्मार्ट बना रहे हैं या और कुछ ?)

यह कहानी का आधा सच है। वास्तविकता -जिसका सामना करने के लिए हममें से ज्यादातर लोग तैयार नहीं, इससे कहीं आगे है। शिवा सुब्रमण्यम कहते हैं कि 14 साल की उम्र के दौरान एक बच्चे का शारीरिक परिवर्तनों के प्रति जागरूक हो जाना स्वाभाविक है, लेकिन समस्या यह है कि अब के बच्चों में यह सब बहुत पहले हो रहा है। उनमें बचपन से वयस्क होने के दौरान आने वाले बदलाव की समय सीमा कम और गति बढ़ गई है। आज ऐसे बहुत से बच्चे हैं जो मानसिक तौर पर वयस्क हो चुके हैं। वे जोर देते हुए कहते हैं कि इस सबके लिए निश्चित ही टेलीविजन और उसका आक्रामक प्रचार तंत्र दोषी है।

मनोविश्लेषक कल्पना बासु मजूमदार मानती हैं कि आज के बच्चे यौन संबंधी मामलों के प्रति जागरूक हैं। इसकी वजह उन्हें उपलब्ध कराया गया वातावरण है। कम से कम कपड़े पहनी मॉडल्स की तस्वीरों से भरी मैगजींस, टीवी, फिल्में, अखबार, इंटरनेट। उन्हें चारों ओर मनोरंजन की आड़ में यौन आकर्षण से भरी चीजें देखने को मिलती हैं। पूरा सामाजिक परिवेश बच्चे में यौन विषयों के प्रति जिज्ञासा पैदा कर देता है।

सेन इसमें आगे जोड़ते हुए कहते हैं कि “ये सब परिस्थितियां मिलकर बच्चे को उसकी उम्र और जरूरत से ज्यादा जानने के लिए उकसाती हैं । इस जिज्ञासा के चलते वह चुपके-चुपके वयस्क के जूते पहनने की कोशिश करने लगता है और इंटरनेट की एक्स रेटेड साइट जैसी चीजों का सहारा लेने लगता है, जो उसे और ज्यादा भ्रमित करती हैं। उसके सामने सूचनाओं का संसार है लेकिन उसे समझने की उम्र नहीं। ऐसे दौर में वह यह नहीं समझ पाता कि आखिर उसे करना क्या चाहिए । सही मार्गदर्शन के अभाव में अंततः वह कोई गलत हरकत कर बैठता है।”

कारपोरेट जीवन शैली

आज की कॉर्पोरेट जीवनशैली में ऐसा बहुत कुछ शामिल है जो बच्चों से दूर रखा जाना चाहिए और जिसके लिए बच्चे के साथ खुद को भी नियंत्रित रखने की उतनी ही जरूरत है। मनोविश्लेषक और समाजसेवी वत्सला सुब्रमण्यम कहती हैं कि “बच्चा अक्सर बड़ों की ही नकल करता है। वह अभिभावक का अनुकरण करने की कोशिश करता है। उसके सामने धूम्रपान या शराब का सेवन कर आप उसके भीतर उनके प्रति जिज्ञासा बढ़ाते हैं। ऐसे में बच्चे को शराब या सिगरेट पीते हुए देख कड़ा रुख अख्तियार करने से पहले ध्यान कर लें कि हो सकता है उसने यह आप ही से सीखा हो। आपका बच्चा पलटकर आपसे ही सवाल भी पूछ सकता है कि आप ऐसा क्यों करते हैं? ऐसी स्थिति आ ही जाए तो उस पर भड़कने के बजाय उसे समझाइए कि आप भी विशेष अवसरों पर ही इनका इस्तेमाल करते हैं और ऐसी चीजें बड़ों की तुलना में बच्चों को ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं।”

माता पिता की व्यस्तता

बच्चे वास्तव में इन चीजों को समझने के लिए अपरिपक्व होते हैं। वे इन परिस्थितियों को लेकर अक्सर असमंजस की स्थिति में रहते हैं और कभी-कभी मानसिक अवसाद के शिकार हो जाते हैं। उन्मुक्त, तनावरहित, मासूमियत से भरा हंसता-खेलता बचपन अब गुजरा जमाना सा नजर आता है। आज के बच्चे के पास नानी के उस स्टोर की चाबी नहीं, जिसमें मुरब्बा और अचार की बरनियां बंद रखी होती थीं। नानी की दोपहर की नींद नहीं है। जब उसके तकिए के नीचे से वह चाबी चुराई जाती थी। उसके पास वह दादी नहीं जो ईश्वर का नाम लेना  सिखाती थी और उसके सर पर हाथ फेर मेरे बच्चे जैसे दो शब्द कहती थी। उसके पास वो मां नहीं जो हाथ से सिलकर उसे कपड़े पहनाती थी। वह पिता नहीं जो रोजाना शाम को उसका हाथ पकड़ कर उसे घुमाता था, साइकिल की सीट पर बिठाकर उसे तरबूज खिलाता था।

आज के बच्चे के चारों ओर रिश्ते तो हैं पर उसमें  गर्माहट और वास्तविकता की जगह उनकी औपचारिकता नजर आती है। ऐसे में उसके भीतर का भावनात्मक खालीपन उसे दर खींचे ले जा रहा है। उसके सामने भ्रमित करता सूचनाओं का आतंक है और दूसरी ओर अभिभावक की अपेक्षाओं की लंबी कतार। स्कूल, ट्यूशन, होमवर्क, परीक्षाएं साथ में खेलकूद पाठ्यक्रम से बाहर गतिविधियां, टेलीविजन, इंटरनेट आदि आदि  सूची अंतहीन है। आपका बच्चा  उतना ही व्यस्त है जितने कि आप और हम होते हैं ।

इन सब का नतीजा है बच्चों में बढ़ता अवसाद। मनो वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि 6-8 वर्ष के बच्चों में अवसाद के मामले बढ़ रहे है। आज का बच्चा अपेक्षाओं के दबाव और उन पर असफल होने के लगातार डर में जी रहा है। उसके दिमाग पर लगातार बना रहने वाला यह तनाव उसे अवसाद की ओर धकेलता है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के आंकड़ों को देखें तो 2001 में स्कूल जाने वाले 12.8% बच्चे भावनात्मक और व्यवहार संबंधित समस्याओं के शिकार थे। पिछले 6 वर्षों में यह संख्या कई गुना बढ़ गई है।  बच्चे को उपलब्ध वर्तमान परिवेश दरअसल अभिभावक की भूमिका को और सशक्त करने की ओर इशारा कर रहा है। बाजार मनोरंजन और मीडिया के इस आक्रमण के प्रभाव से बचने के लिए जिस हाल की जरूरत है वह है अभिभावक।                                           (बच्चों को मोबाइल और टीवी से नुकसान – क्या हम बच्चों को स्मार्ट बना रहे हैं या और कुछ ?)

बच्चों को सकारात्मक रहना सिखाएं  

 एक नई नई बनी मां अपने नवजात को मासिक जांच के लिए बाल चिकित्सक के पास लेकर पहुंची। पहुंचते ही उसने उन पर सवालों की बौछार शुरू कर दी। क्या बच्चे के नाखून इन्फैंट कैंची से काटने चाहिए? क्या यह सच है कि स्ट्रोलर में बिठाने से उसकी रीढ़ की हड्डी को नुकसान पहुंचता है? अगर बच्चे ने नहाने के दौरान वह पानी पी लिया तो? और अंत में सबसे जरूरी-बच्चे को गोद में उठाते समय उसके होंठ क्यों कांपते हैं? उसका आखिरी सवाल डाक्टर के लिए थोड़ा ज्यादा हो गया। इस पर डाक्टर अपना अपना धैर्य खो बैठा और डांटते हुए बोले “आखिर मां-बाप अपने बच्चों को लेकर इतने नकारात्मक क्यों होते हैं? क्या तुम्हारे बच्चे का होंठ हिलाना उसकी मुस्कान नहीं हो सकता?”

यह  सच है कि अभिभावक होने के नाते अक्सर हम अपने बच्चों से जुड़े पहलुओं पर नकारात्मक होते हैं। वह उसकी योग्यता हो, (बहुत मेहनती है या बहुत आलसी) स्वभाव हो (अत्यधिक संवेदनशील या बहुत व्यावहारिक) या फिर सामाजिक व्यवहार (बहुत शर्मीला या बहुत साहसी)। ऐसा करते हुए जाने अनजाने अपनी नकारात्मक सोच को बच्चे में स्थानंतरित कर रहे होते हैं। ‘पेरेंट्स जरनल’ के लेखक बॉबी कौनोर के अनुसार,बच्चे में जन्म से ही ‘हम भी कर सकते हैं की भावना होती है। वह चाहे दीवार पर लटकी चाबी को पाने की चाह हो, टेबल पर चढ़ने की कोशिश या फिर थोड़ा बड़ा होने पर बड़ों जैसा व्यवहार करने की इच्छा। दरअसल यह उसके आशावादी होने तथा खुद पर विश्वास होने का संकेत है। पेरेंट्स जरनल किताब के लेख अभिभावकों को निम्न सलाह देते हैं –

  • उम्र के साथ बच्चों का दिमाग भी विकसित होने लगता है। कोशिश कीजिए कि बढ़ती उम्र के साथ बच्चे की  दुनिया को जानने की जिससे आप उसकी जिज्ञासा संतुष्टि पूर्वक शांत कर सकें।
  • अपने बच्चों को सपने देखने के लिए प्रोत्साहित कीजिए और उनसे उनके सपनों को पूरा करने के बारे में उनसे बातें कीजिए।
  • अपने बच्चे के विकास और उसकी हर स्तर पर होने वाली प्रगति पर खुश हों। उसके भीतर की खूबियों को पहचानिए ।
  • बच्चों में सकारात्मक सोचने की आदत डालिए। अध्ययनों ने साबित किया है कि सकारात्मक सोच वाले बच्चे बुद्धिमान और हंसमुख होते हैं ।।

बच्चों को कैसे समझें

अपने बच्चे को आज के माहौल से पूरी तरह अछूता रखना संभव नहीं है। आप उसे टीवी देखने के लिए मना तो नहीं कर सकते। ऐसे में माता-पिता की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, इस आंधी का सामना करने के लिए उसे आपके नजदीकी मार्गदर्शन की जरूरत है। उसे टीवी फिल्म, मोबाइल और असल जिंदगी का फर्क समझाइए। उसके साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताइए, उसके भीतर विश्वास जगाइए कि यदि वह कोई गलती कर भी बैठे तो उसे तुरंत आपके साथ बांट सके। उससे उसकी उम्र के अनुरूप संवाद बनाइए। याद रखें आपके बच्चे को आपसे मिलने वाला स्नेह उसकी उपलब्धि और सफलता पर आधारित नहीं होना चाहिए। और सबसे खास, अपनी अनुपस्थिति की क्षतिपूर्ति पॉकेट मनी और भौतिक सुविधाओं से वंचित करने की भूल मत कीजिए।

किसी शायर ने बहुत खूबसूरती के साथ बचपन और उसकी मासूमियत को बचाने की गुजारिश की है। कहा है ‘बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो, चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे।”  अब भी बच्चे पहले की तरह ही मासूम हैं, फर्क इतना है कि वर्तमान में जिज्ञासा और बाह्य वातावरण का परिचय होने से उनकी समझ बढ़ गई है। मां-बाप खुद अपने बच्चे को बाहरी माहौल की जानकारी देते हैं ताकि वह स्वयं को सुरक्षित रख सकें और उसमें समाज की समझ विकसित हो सके। ऐसे में मासूमियत का पर्दा बहुत जल्दी उठ जाता है। दरअसल बच्चे का दिमाग उसकी मासूमियत, सब वही है, जो बदला है वह है उसके चारों तरफ का माहौल।

इस मनोविज्ञान और वर्तमान सूचनाक्रांति के साथ जब आपका बच्चा  14 वर्ष की उम्र के आस पास पहुंचता है तो अपनी उम्र से आगे की बात कर अभिभावक को आश्चर्यचकित कर देता है, तो कभी अपनी उम्र की सीमाएं लांघकर उन्हें असमंजस में डाल देता है ।।

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