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Jean paul sartre

Jean paul sartre – ज्यां पाल सार्त्र अस्तित्ववाद के जनक

ज्यां पाल सार्त्र का जन्म और प्रारम्भिक जीवन

नोबेल पुरस्कार को ‘एक बोरा आलू’ कहकर अस्वीकार कर देने वाले लेखक, शिक्षक और दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र (Jean paul sartre) का जन्म 21 जून, 1905 को फ्रांस में हुआ। सार्त्र के जन्म के पंद्रह महीनों के बाद ही उनके पिता की मृत्यु हो गई और मां एन मेरी ने एक उद्योगपति से दूसरा विवाह कर लिया। सार्त्र का लालन-पालन नाना के घर हुआ। लाड़ प्यार इतना कि 8 वर्ष की आयु तक सार्त्र को लड़कियों के कपड़े पहनाए जाते रहे और दो चोटियां गूंथी जाती रही। इसी दौर में सार्त्र को इंफ्लूएंजा हुआ, जिसकी वजह से सार्त्र भेंगे हो गए।उनकी शिक्षा-दीक्षा ‘लॉ रोशे’ जैसे विद्यालय में हुई। ‘ईकोल नार्मेल सुपिरियोर’ से जहां रेमंड आर्मेन और सीमोन द बउआर उनके सहपाठी थे, उन्होंने उच्च शिक्षा पूरी की।

जून सन 1929 में सार्त्र की नियुक्ति ‘ले हार्वे’ में एक शिक्षक के रूप में हुई। कालांतर में उन्होंने हुर्शेल और मार्टिन हाइडेगर के दृग्विषय शास्त्र (फेना-मिनॉ-लॉजी) का गहरा अध्ययन किया। सार्त्र की डायरी पढ़कर लगता है कि उन्होंने काल मार्क्स को पूरी तरह नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़ा था। सार्त्र उन विद्रोहियों में थे, जिन्होंने किसी दल की सदस्यता स्वीकार नहीं की। उनके दार्शनिक विचार, उनके नाटकों और उपन्यासों में अंतर्निहित हैं।

ज्यां पाल सार्त्र का कैरियर

फ्रांस में उनके नाटक ‘लॅमूस’ के मंचन के बाद ही सार्त्र की ख्याति बढ़ी। जब द्वितीय युद्ध शुरू हुआ तब सार्त्र को देश की रक्षा के लिए सेना में जाना अनिवार्य हो गया। जर्मनी सेना फ्रांस में घुसकर जिन सेना कर्मियों को युद्धबंदी बनाकर ले गई, उनमें सार्त्र भी थे। युद्ध में बनाए गए बंदियों को जर्मन सैनिक इसलिए भी पीटते थे कि उनके शरीरों से बदबू आती थी। मार खाने वालों में सार्त्र भी थे। फ्रांस ने जब हिटलर की सेना के सामने घुटने टेक दिए तो सारे युद्धबंदी छोड़ दिए गए। तब सार्त्र ने पेरिस लौटकर दर्शन पढ़ाना शुरू किया।

उनका प्रसिद्ध दर्शन ग्रंथ ‘बीइंग एंड नथिंगनेस’ उन्हीं दिनों प्रकाशित हुआ, जब हिंदी में ‘तार सप्तक’ छपा था। वैसे इससे पहले सार्त्र का उपन्यास ‘नौसिया’ खासा प्रसिद्ध हो चुका था। उनकी अन्य प्रकाशित कृतियों में ‘आयरन इन सोल’, ‘द एज ऑफ रीजन’, ‘रिस्पेक्टेबुल प्रॉसीच्यूट्स’, ‘वाट इज लिटरेचर’ और उनकी आत्मकथा ‘वर्ड्स’ आदि प्रमुख हैं। अस्तित्ववाद जैसे दर्शन के उन्नायक सोरेन किर्कीगार्द माने जाते हैं, जिनका प्रारंभ में आस्थापरक दर्शन था, मगर ज्यां पाल सार्त्र ने कुछ स्थापनाएं ऐसी कीं, जिनके कारण वह मनुष्य और स्वतंत्रता की मीमांसा जैसा लगने लगा, साथ ही अस्तित्व को निरर्थक भी मानने लगा। उदाहरण के लिए सार्त्र का यह कहना कि ‘मैन इज कंडम्ड टू बी फ्री’ या कि ‘मैन इज अ ए यूजलेस पैशन।’ सार्त्र प्रश्न करते हैं कि क्या आदमी ईश्वर की अनुपस्थिति में भी अपने होने की सार्थकता सिद्ध कर सकता है ?

सार्त्र प्रश्न करते हैं – साथ ही उत्तर भी देते हैं – हां, जबकि ग्रेबियल मार्शेल जैसे आस्तिक अस्तित्ववादी इसे स्वीकार नहीं करते। अस्तित्व के केंद्र में सार्त्र ने मनुष्य और उसकी स्वतंत्रता को सामने रखा। आदमी की स्वतंत्रता का निर्वचन करने के लिए सार्त्र पहाड़ पर एक ऐसे आदमी की कल्पना करने के लिए कहते हैं, जो थोड़ी ऊंचाई पर जाकर कुछ देर के लिए रुकता है और नीचे की खाई को देखकर एकाएक खाई में गिर जाने की संभावना से चौंककर उत्तेजित हो उठता है। उसकी यह उत्तेजना एक ऐसा आत्मानुभव है- एक ऐसा निजी क्षण, जहां समाज का कोई नियम या प्रतिबंध लागू नहीं होता।

ज्यां पाल सार्त्र का सिध्दांत

Jean paul sartre का सारतत्व, अस्तित्व से भी पहले है। इस वाक्य को स्पष्ट करने के लिए सार्त्र उदाहरण देते हैं कि जब एक बढ़ई कुर्सी बनाने बैठता है तो उस कुर्सी की शक्ल, उसका स्वरूप बढ़ई की चेतना वलय में पहले से मौजूद रहता है-माइकल एंजिलो भी यही कहा करता था कि मुझे एक पत्थर की चट्टान देखकर, यह आभास पहले ही हो जाता है कि इसके भीतर छिपी प्रतिमा का स्वरूप क्या होगा। चेतना वह अवयव है, जो अपने होने के बारे में भी प्रश्न करती है और शायद उत्तर भी अपने ढंग से देती है। मनुष्यों की दुनिया में व्याप्त वास्तविकता को सिर्फ सार्त्र के ‘स्वतंत्रता के सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में ही स्मरण किया जा सकता है, क्योंकि चेतना निषेध है – वह स्वयं अपने में कभी नियोजित नहीं होती- स्वयं को जगत में अवस्थित करते हुए भी यह अपने से परे चली जाती है।

बरसों पहले पेरिस में  उन्होंने  बुद्ध के ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ का जिक्र किया था और कहा था कि बुद्ध के वचन हैं-‘अस्मिनसति इद्मभवति’- इसके होने पर यह होता हैइसके उत्पाद से उसका उत्पाद होता है। इसके न होने से वह नहीं होता। आपका ‘बीइंग एंड बि-कमिंग’ सिद्धांत हमें अपने देश के बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन चक्रकीर्ति आदि का स्मरण दिलाता है।’ इसके उत्तर में सार्च ने कहा था- ‘निगेशन (निषेध) का निगेशन (निषेध) दर्शन निश्चित रूप से पश्चिमी चिंतनधारा में पूर्व (ईस्ट) से ही आया है।         Jean paul sartre

ज्यां पाल सार्त्र की मृत्यु

ज्यां पाल सार्त्र (Jean paul sartre) मृत्यु से पूर्व सार्त्र लगभग अंधे हो चुके थे। उन्होंने सन 1965 में ऑर्लेट नाम की जिस लड़की को गोद लिया था, वह आज सार्त्र के समस्त कृतित्व की उत्तराधिकारिणी है। सार्त्र की मृत्यु 15 अप्रैल 1980 में पेरिस के एक अस्पताल में हुई। उस समय उनकी कुल उम्र थी 75 वर्ष थी । हालांकि सार्त्र इस उम्र में अपनी सभी चीजें भूल चुके थे, मगर लोगों का उनके दर्शन को भुला पाना किसी तरह भी संभव नहीं है ।।

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