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संतुष्टि क्यों नहीं है ?

संतुष्टि क्यों नहीं है ? – हमें संतुष्टि क्यों नहीं मिलती ?

ज कल एक सवाल अधिकत्तर लोगों के मन में  उठता है, कि मेरे पास धन है, सम्मान है, सम्पत्ति है  पर संतुष्टि क्यों नहीं है ? आईये इसका जवाब हम आगे इस लेख में ढूंढने कि कोशिश करते हैं और जानते हैं कि क्या कारण हैं कि हमें संतुष्टि क्यों नहीं मिलती ?

अपने आप में सुधार करें

किसी भी काम को जारी रखते हुए उसमें सुधार करना बड़ी चुनौती है। हमें भी जीवन को जारी रखते हुए उसे स्वस्थ, उर्जावान बनाना है। इसे हम एक कहानी से समझते हैं एक हृदय रोग विशेषज्ञ की कार खराब हो गई वह कार को मेकेनिक के पास ले गया। कार के इंजन में खराबी थी। मेकेनिक कार ठीक करने लगा और डाक्टर से बोला “तुम भी दिल ठीक करते हो और मैं भी। मुझे एक हजार मिलते हैं, तुम्हें एक लाख।” डॉक्टर ने जवाब दिया “तुम  निर्जीव चीज क दिल ठीक करते हो। मैं सजीव का दिल ठोर करता हूं। तुम कार को बंद करके काम करते हो, मैं व्यक्ति को जिंदा रखकर काम करता हूं”।

अपने विशेताओं को मन की सुंदरता बनाएं

हमारी कुछ विशेषताएं ही हमें दे सकती हैं हमारे मन को मजबूत सुंदरता। एकाग्रता मन को ऊर्जा से भर देती है। शांत चित्त अन्यो स्वास्थ्य का परिचायक है। नारियल का वृक्ष दूसरे वृक्षों की तुलना में अधिक लंबा होता है, क्योंकि नारियल का वृक्ष अधिक एकाग्र है। वह एक ही दिशा में अग्रसर रहता है, जबकि दूसरे पेड़ किसी भी दिशा में फैलने को तत्पर रहते हैं। उन्हें जहां अवसर मिलता है, वे उधर बढ़ने लगते हैं, जबकि नारियल का पेड़ अपनी एकाग्रता भंग नहीं होने देता।                                                              (संतुष्टि क्यों नहीं है ?)

विनम्र बनें

नम्रता वह विशेषता होती है जो मन की सुंदरता बढ़ाती है, हमें अहंकार से बचाती है। अहंकार का विष मन के साथ-साथ शरीर को भी नेस्तनाबूद कर देता है। इसे हम ऐसे समझते हैं । एक राजा था। उसने एक बड़ा सुंदर बगीचा बनाया। उसमें उसने सत्य, प्रेम, ईमानदारी और सच्चाई, भक्ति, ज्ञान इत्यादि के पौधे लगाए। इन पौधों की राजा स्वयं देखभाल करता। उनमें खाद-पानी देता। पौधे बड़े होने लगे। उन पर फूल खिले। उन फूलों में ऐसी महक थी कि सारा नगर, राज्य महक उठा। चारों ओर राजा की बड़ाई होने लगी। उसकी जय-जयकार होने लगी। राजा फूलकर कृपा हो गया कुछ ही दिनों में राजा ने देखा कि एक नन्हा सा पौधा अपने आप उग आया है। बड़े-बड़े पौधों के बीच उस पौधे का क्या मूल्य हो सकता था। राजा ने उस ओर ध्यान नहीं दिया। जब वह पौधा तेजी से बढ़ने लगा तो राजा ने उसे उखाड़ने की कोशिश नहीं की, सोचा, कोई बात नहीं है। पड़ा रहने दो।

थोड़े दिन बीते कि उसने वृक्ष का रूप धारण कर लिया। उस पर फूल खिले। फूल इतने सुंदर थे कि जो भी देखता, देखता रह जाता, लेकिन उनमें इतनी भयंकर दुर्गंध थी कि लोगों को सहन करना कठिन था। वे नाक बंद कर लेते। राजा हैरान था कि यह वृक्ष कौन सा है कि जिसके फूल तो इतने सुंदर हैं पर जिसकी गंध इतनी असहनीय है। उसने बहुतों से पूछा, पर कोई नहीं बता सका। एक दिन एक साधु राजा के यहां आया। राजा ने उसे वह वृक्ष दिखाया और पूछा कि वह किस चीज का वृक्ष है? साधु ने इस पर निगाह डाली, फिर हंसकर बोला, ‘राजन’ यह अहंकार का विष-वृक्ष है। इसे लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। यह अपने आप उग आता है और तेजी से बढ़ता है। इसके फूल बड़े लुभावने होते हैं, लेकिन इनकी बदबू इतनी होती है कि दूसरे फूलों को मिट्टी में मिला देती है। इससे जो बचता नहीं, उसकी वैसी ही हालत होती है, जैसी आपके बगीचे की हुई है।

अपने अंदर अच्छे गुण लाएं

कहते हैं कि मानव प्रकृति में तीन गुणों का समावेश है- सत्य, रज व तम। श्रद्धा, आदर, सच्चाई सत्व गुण में परिलक्षित होते हैं, गुस्सा, घृणा, अत्यधिक महत्वाकांछा  रज की निशानी हैं व आलस्य, कुंठा तम को उद्धृत करती हैं। सत्व गुण अर्थात् सुख, रज गुण अर्थात् दुख, तम गुण अर्थात् मोह। अपनी प्रकृति के अनुसार काम करने से मन और तन में कोई कशमकश नहीं होती, उथल-पुथल नहीं होती। अपनी प्रकृति, स्वभाव के विपरीत जाने से मन बुझ जाता है, जाने-अनजाने हमारा स्वास्थ्य प्रभावित होने लगता है। इसे समझने के लिए एक कहानी और पढ़ते हैं –

एक माली और एक सुनार में दांत काटी दोस्ती थी। माली अपने बगीचे में सुगंधित फूल उगाने के लिए दिन-रात कड़ा परिश्रम करता और भांति-भांति की खुशबू पैदा कर देता था। अपने उद्यान पर गर्व था। मानव स्वभाव है कि हम अपने उद्यम को अपने सगे-संबंधियों और यार-दोस्तों को दिखाकर उनकी वाह-वाही लूटने के ख्वाहिशमंद रहते हैं और अपने अहं की तुष्टि करके सुख पाते हैं। सो उस माली ने अपने दोस्त सुनार से कहा, क्या अपनी दुकान पर बैठे ठुक-ठुक करते रहते हो। एक दिन मेरे बगीचे में आओ। भांति-भांति की खुशबुओं का साक्षात्कार करोगे तो तबीयत बाग-बाग हो जाएगी।                                                                                                                                      (संतुष्टि क्यों नहीं है ?)

हर किसी के अपने अपने गुण हैं

सुनार बोला मेरे दोस्त! मैं जरूर आऊंगा। एक दिन वह बगीचे में पहुंच गया। उसके हाथ में सोने को कसने की कसौटी थी। वह एक-एक फूल को अपनी कसौटी पर कस कर देखता और मुंह बिचका कर दूसरे पौधे की तरफ रुख कर देता। सुनार को बगीचे में मजा नहीं आया। माली को भी अच्छा नहीं लगा। उसने सोचा मैंने किस पागल को निमंत्रण दे दिया। इसके बाद सुनार ने माली को अपनी दुकान पर आने का निमंत्रण दिया। माली ने दावत मंजूर कर ली। वह अपने दोस्त सुनार की दुकान पर पहुंच गया। वह हर एक जेवर उठा-उठाकर सूंघता और निराश होकर रख देता। संभवतः वह सोने में भी सुगंध खोज रहा था। उसे भी उतनी ही निराशा हाथ लगी जितना कि सुनार को बगीचे में लगी थी।

आचार्य विनोबा भावे ने कहा कि “मनुष्य सोचता है पक्षी हवा में उड़ते हैं तो मैं भी क्यों न उडूं? मछलियां पानी में तैरती हैं तो मैं भी पनडुब्बी बनाकर क्यों न पानी में उतरूं? वह मानव होकर पक्षियों, मछलियों तक से प्रतिस्पर्धा करना चाहता है। हर पल और, कुछ और, बस कुछ और पाने की खोज में लगा रहता है। संतुष्टि हमें खुशी देती है, जीने का संबल देती है, परिस्थितियों को स्वीकारने का हौसला देती है। हम समझौता नहीं करते अपितु संतोष करते हैं”।                                                                 (संतुष्टि क्यों नहीं है ?)

संतोष करना सीखें

एक सूफी फकीर के शिष्यों ने बड़ा बगीचा उसके झोपड़े के पास लगा रखा था। उसने एक तख्ती बगीचे पर लगा दी कि ‘जो भी व्यक्ति पूर्ण संतुष्ट हो, उसे मैं यह बगीचा भेंट करना चाहता हूं।’ उसके शिष्य ने यह खबर चारों तरफ फैला दी। अनेक लोग आए, लेकिन खाली हाथ लौट गए। यह खबर सम्राट तक भी पहुंची। उसने सोचा, ‘औरों को लौटा दिया, ठीक है मुझे क्या लौटाएगा? मुझे क्या कमी है, मैं संतुष्ट हूं, सब जो चाहिए मेरे पास है।’ वह फकीर के पास गया और कहा, ‘मैं पूर्ण संतुष्ट हूं। यह बगीचा मुझे दे दो।’ फकीर हंसा और बोला, ‘अगर तुम पूर्ण संतुष्ट होते तो यहां आते ही क्यों? यह बगीचा तो उसके लिए है, जो यहां आएगा ही नहीं, मैं ही स्वयं उसके पास जाऊंगा।’

 संतुष्टि के लिए क्या करें

आज हमारे बच्चे चिप्स और चॉकलेट चबाते हुए, टी.वी. पर हैरी पॉटर व बार्बी के किस्से देख-देखकर काउच पोटेटो में तब्दील हो रहे हैं, आज के युवा कम्प्यूटर स्क्रीन को अपने जीवन की धुरी मान दुनिया का चक्कर लगा रहे हैं। मस्तिष्क की बढ़ती गति ने मन की गति को धीमा कर दिया है जिससे तन की गति भी अवरुद्ध हो रही है। हम झूठ के तवे पर आक्रोश की रोटी सेंक रहे हैं, प्रतिस्पर्धा की थाली में अधीरता से उसे खा रहे हैं।

हम अज्ञान खा रहे हैं, डर पी रहे हैं, अन्याय ओढ़ रहे हैं, असंतोष पहन रहे हैं, इसलिए जरूरी है कि अपने मन को नया, ताजा, ऊर्जावान भोजन दें। आइए, सच के प्याले में विवेक रखें, उसमें श्रद्धा व विश्वास मिलाएं। आदर की कड़ाही में उत्साह को गर्म करें, सारी वस्तुएं डालें व विचार के चम्मच से हिलाएं। धैर्य के प्याले में ठंडा करें व संतुष्टि से सजा कर आभार के साथ परोसें। मन को ताजा भोजन चाहिए हम अज्ञान खा रहे हैं, डर पी रहे हैं, अन्याय ओढ़ रहे हैं, असंतोष पहन रहे हैं। हर पल और कुछ और, बस कुछ और पाने की खोज में हैं ।।

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