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सत्य की खोज महात्मा गांधी

सत्य की खोज महात्मा गांधी – महात्मा गांधी की नजरों में सत्य

त्य सभी सीमाओं और संकीर्णताओं को तोड़कर निर्बन्ध बहता है और सभी विरोधाभासों को अपने में समाहित कर लेता है । यह सत्य का स्वरूप है, सत्य की चेतना है, सत्य का आनंद है। यह सत्य की सार्वभौमिकता है। सत्य की परिभाषा बड़ी व्यापक है अन्य महापरूषों कि तरह महात्मा गाँधी ने भी सत्य के मार्ग को चुना था। आज हम गांधी के सत्य के बारे में बात करते हैं, इस लेख में हम जानते हैं कि महात्मा गांधी की नजरों में सत्य क्या है और  सत्य की खोज महात्मा गांधी ने कैसे कि थी या यूं  कहिये सत्य के बारे में गांधी के विचार क्या हैं।

महात्मा गांधी के सत्य पर विचार

 “सृष्टि  में एकमात्र सत्य ही तो है जिसकी सत्ता है, उसके सिवा कोई दूसरा नहीं है। सत्य एक विशाल वृक्ष है। इसकी जितनी सेवा की जाए, उसमें उतने ही फल आते हैं और उनका कभी अंत नहीं होता। जितना हम उसके अंदर गहरे पैठते जाते हैं, त्यों-त्यों उसमें से रत्न निकलते जाते हैं और सेवा के अवसर हाथ आते रहते हैं। समूची पृथ्वी सत्य के बल पर टिकी है और सृष्टि का यह एक अटल नियम है कि जो वस्तु जिस साधन से प्राप्त होती है, उसी साधन से उसकी रक्षा भी होती है। यह भी कि सत्य से संप्राप्त वस्तु का संग्रह भी सत्य के माध्यम से ही हो सकता है। सत्य का अर्थ संकुचित नहीं, विशाल है, जो शाश्वत है, जो होना है, वह सत्य है। इसी के बल पर सब कुछ होता है। सत् यानी सत्य अर्थात है और असत् यानी असत्य अर्थात नहीं, तात्पर्य यह कि जो सत् अर्थात है उसका नाश कौन कर सकता है और जहां असत् अर्थात अस्तित्व ही नहीं है, उसकी सफलता हो कैसी सकती है, इसीलिए निर्मल अंतःकरण को जिस समय जो प्रतीत होता है वह सत्य है और उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है।   सत्य की खोज महात्मा गांधी

सत्य के साधक को, शोधक को एक-एक रज-कण से भी नीचे रहना पड़ता है, सारी दुनिया रज-कण को पैरों तले रौंदती है, पर सत्य का पुजारी जब तक इतना छोटा नहीं बन जाता कि रज-कण भी उसे कुचल सके, तब तक स्वतंत्र सत्य की झलक भी पाना दुर्लभ है। जहां सत्य की ही चाह है, उपासना है, वहां परिणाम हमारी धारणा के अनुसार न भी निकले वह बुरा नहीं होता और कभी-कभी तो आशा से भी अधिक अच्छा होता है। सत्य ही परमात्मा है, वह हमेशा मौजूद है और हर जीव में है, इसलिए मानव को उनके बीच अपना आदर्श जीवन रखना चाहिए और उनकी आवश्यकतानुसार सेवा करनी चाहिए। सत्य उन्हीं को मिलता है जो उसे ढूंढ़ते हैं। सत्य यानी ईश्वर, दूसरा कुछ भी नहीं, इसलिए हम सत्य के जितने ज्यादा नजदीक हैं, उतने ही ईश्वर के ज्यादा नजदीक हैं।

जिस हद तक हम सत्यमय हैं, उसी हद तक हम हैं, इसलिए सत्य ही ईश्वर है। यह जहां तक मनुष्य की वाचा पहुंच सकती है, वहां तक का पूर्ण वाक्य है। यह पूरे अर्थ वाला नाम है। अगर यह सत्य नहीं है तो कुछ भी नहीं है। सत्य की विजय सरलता से और आप ही आप देखने में आ जाए, तो सत्य की जो कीमत आज है वहन रहेगी और सत्य का पालन सद्गुण न गिना जाएगा। मेरे सामने तो एक ही चीज है सत्य, वह भी पूर्ण सत्य भले ही पांचों इंद्रियों के द्वारा यह न अनुभव किया जा सके, भले ही कल्पना में रहे, तो भी उसका अस्तित्व तो है ही, इसलिए सच बात चाहे कितनी कड़वी क्यों न हो, मौके पर कहनी चाहिए। जो मौके पर नहीं कही गई, वह सच नहीं हो सकती। सत्य के मार्ग पर चलने से हमेशा श्रेय होता है, यह मानना ही अलावा सब कुछ अधूरा है।”                                   सत्य की खोज महात्मा गांधी

सत्य के और प्रयोग होने चाहिए – तुषार गांधी

बापू सही तरीकों को अपनाने में माहिर थे। वे खुद सादगी के प्रतीक थे। इसलिए वे साधारण भाषा का इस्तेमाल करते थे। ऐसी भाषा, जिसे आमजन भी समझें और बौद्धिक वर्ग भी। उनके संदेश व शब्द हरेक को उसकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार भाते थे। जब मैंने ‘लगे रहो मुन्नाभाई‘ देखी तो पाया कि लोग अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार शब्दों का अर्थ निकाल रहे हैं, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि थियेटर से बाहर हर कोई कुछ न कुछ संदेश लेकर निकला, किसी न किसी सकारात्मक भावना के साथ। जैसा कि बापू की शांति सभाओं में होता था, जहां हजारों लोग उनका संबोधन सुनते थे राजा और रंक एक साथ, और फिर कुछ सकारात्मक सोच के साथ ही वहां से जाते थे। बापू की हत्या के बाद, दुर्भाग्य से उनके ज्यादा स्नेहशील व पितृत्व भावना वाले बापू की जगह महात्मा ने ले ली। लोगों ने महात्मा से दूर होना महसूस करना शुरू कर दिया ।

 ‘महात्मा गांधी’ राजनीतिक इस्तेमाल का भी बुरा असर पड़ा। आजादी के बाद की जिन पीढ़ियों ने महात्मा को प्रत्यक्ष नहीं देखा था, वे उस ‘महात्मा’ में विश्वास नहीं कर पाई, जो उन पर थोपा जा रहा था। जैसा कि मुन्नाभाई फिल्म में कहता है कि यदि बापू जिंदा होते तो वे अनुरोध करते कि उनकी सभी प्रतिमाएं तोड़ दी जाएं, उनके नाम की सभी सड़कों के दूसरे नाम रख दिए जाएं और दीवारों पर लटके उनके फोटो हटा दिए जाएं, यदि कोई उन्हें कोई जगह देना ही चाहता है तो अपने दिल में दे । समय बदल चुका है, इसलिए महात्मा के आदर्श एवं विचार लोगों तक पहुंचाने के तरीके बदलने पड़ें तो क्या गलत है ?                                        सत्य की खोज महात्मा गांधी

मुन्नाभाई ने आज की शैली और भाषा में गांधी को नौजवान लोगों तक पहुंचाया है, यह प्रयास वाकई सराहनीय है। जो काम इस देश के राजनेता बापू के जाने के इतने वर्षों बाद नहीं कर सके, वह काम यदि मुन्नाभाई ने कर दिया तो इसमें किसी को कोई गिला-शिकवा नहीं होनी चाहिए । गांधीगिरी शब्द से परेशान होने की जरूरत नहीं है। सही बात यह है कि एक बार फिर गांधी को समझने की कोशिश शुरू हुई है।

तुषार गांधी के महात्मा के प्रति विचार

“आज सर्वत्र त्याग का महज  ढोंग जारी है और कभी कोई तो कभी कोई और नेता अपने त्याग को महिमा मंडित करने और अपने मकसद में कामयाब होने के लिए उसे बापू के त्याग से जोड़ता रहता है। बापू की उपस्थिति का एहसास और उनकी प्रेरणा हमारी राजनीति में कतई दिखाई नहीं देती और न राजनीति के किसी पहलू में बापू दिखाई देते हैं, जबकि राज नेता यह सोचते हैं कि यदि बापू के बताए सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलें तो उनकी दुकानदारी वह चाहे अपराध और अपराधियों को संरक्षण की हो, भ्रष्टाचार में संलिप्तता की हो या राजनीति में धंधे बाजी को बढ़ावा देने की हो, के बंद हो जाने का खतरा पैदा हो जाएगा। क्योंकि सबका एक मात्र ध्येय और अंतिम लक्ष्य सत्ता पाना है और उसी की खातिर ये सारे ढोंग रच जाते हैं।

                                                     सत्य की खोज महात्मा गांधी

आतंकवाद के दौर में बापू की प्रासंगिकता और उनके सत्य-अहिंसा के प्रयोगों की बात की जाती है, जबकि यह सभी जानते हैं कि आतंकवाद का जन्म हिंसा के चक्र से हुआ है। इसलिए सबसे पहले आतंकवादी कोई न बने, इसे रोका जाए। ऐसा होने पर आतंकवाद खुदब-खुद रुक जाएगा। अपनी सभ्यता और वजूद को बचाने के लिए अहिंसा के रास्ते पर चलना होगा, लेकिन इन गांधीवादियों से जो पवित्र और महान उद्देश्यों के लिए स्थापित संस्थाओं पर कब्जा जमाए बैठे हैं, उनसे ऐसी आशा करना बेकार है। वास्तव में ये लोग गांधी वादी हैं ही नहीं। इनका ठहराव उसी पानी की तरह है जो सड़ कर अब बदबू मार रहा है। इनकी और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की बापू की जयंती या निर्वाण दिवस पर उनके समाधि स्थल जाना, राजघाट पर समाधि पर हाथ जोड़कर फूल चढ़ाना एक मजबूरी बन गई है। यह देखकर मुझे बहुत पीड़ा होती है, जबकि सच्चाई यह है कि राजघाट पर हर रोज आने वाले असंख्य श्रद्धालुओं के अलावा अशक्त, अपाहिज और तकलीफ सहकर किसी के सहारे चलकर समाधि स्थल की ओर बढ़ते बुजुर्गों को देखकर लगता है कि ये लोग आज भी बापू के प्रति अगाध आस्था रखते हैं और उन्हें देखकर लगता है कि वह प्रेरणा से मिली संकल्प शक्ति के सहारे सत्य और अहिंसा के उस पुजारी, जिसे समूची दुनिया महात्मा गांधी के नाम से जानती है, पुकारती है, को श्रद्धा सुमन अर्पित करने आए हैं। मैं आशावादी हूं और मुझे विश्वास है कि सत्य का आलंबन कर समूची दुनिया को शांति-अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले रास्ता दिखाने वाले बापू की जरूरत कभी समाप्त नहीं होगी। भले ही स्थितियां विस्फोटक होती जाएं, उनकी जरूरत बढ़ती जाएगी। बापू का सपना तभी साकार होगा जब सत्य-अहिंसा को अपनाया जाएगा। उनके बताए सत्य के प्रयोगों पर अनुसंधान आवश्यक है। उनकी बताई मुक्ति से अकेले काम नहीं चलने वाला। उसमें कुछ नया भी जोड़ना होगा। बापू भी यही करते थे। उन्होंने साबित कर दिया कि सत्य और अहिंसा बहुत बड़ा हथियार है” ।।

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